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३८६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
भोगकर क्षय करने का कुछ भी पुरुषार्थ नहीं करता है तो वे संचित कर्म उदय में आते ही फल देना प्रारम्भ कर देते हैं।
(५) चित-जो कर्म चय को प्राप्त हो गए हैं, अर्थात्-उत्तरोत्तर स्थितियों में प्रदेश-हानि और रसवृद्धि करके स्थापित किये गए हैं, वे कर्म चित कहलाते हैं। चय-प्राप्त कर्म भी समय आने पर फल देते ही हैं, क्योंकि बद्ध, स्पृष्ट और संचित होने के पश्चात् ही कर्म चित होते हैं। कर्म के जत्थों का जमा हो जाना ही उनका चित होना है।
(६) उपचित-जो कर्म समानजातीय अन्य प्रकृतियों के दलिकों में संक्रमण करके उपचय को प्राप्त हैं। अर्थात्-जो कर्म समान जातीय अन्य कर्मदलिकों से मिलकर बृद्धिंगत हो गए हैं। वे उपचित हैं, ऐसे कर्म भी समय आने पर फल देते हैं।
(७) आपाक-प्राप्त-जो कर्म अभी थोड़ा-सा फल देने के अभिमुख हुआ है, वह आपाक-प्राप्त कहलाता है। जिस प्रकार आम्र के वृक्ष में आम का फल तो लग जाता है, परन्तु अभी पूर्ण रूप से पका नहीं है; अभी कुछ कच्चा है, कुछ पका है। इसी प्रकार जिस कर्म का अभी थोड़ा-सा परिपाक हुआ है, वह जरा-सा फलोन्मुख हुआ है। जैसे-ज्वर आने से पहले हाथ-पैर टूटने लगते हैं, मस्तक भारी-भारी हो जाता है। शरीर में गर्मी आ जाती है, यह ज्वर का प्रारम्भिक रूप है। ज्वर का पूर्णतया परिपाक तब होता है, जब शरीर पूरा तप जाता है, आँखें लाल हो जाती हैं, मनुष्य शिथिल होकर शय्या पर लेटने को विवश हो जाता है। इसी प्रकार आपाक-प्राप्त कर्म भी थोड़ा-सा फलोन्मुख हो जाता है। आपाक-प्राप्त होने पर वह कर्म समय आने पर फल भुगवाता ही है।
(८) विपाक-प्राप्त-ऐसा कर्म जो विपाक को प्राप्त हुआ है, अर्थात्-विशेष फल देने को अभिमुख हुआ है, वह विपाक-प्राप्त है। विपाक-प्राप्त होने पर कर्म अपना फल यथासमय देता ही है।
(९) फल-प्राप्त-जो कर्म फल देने को अभिमुख हुआ है, वह फल-प्राप्त है। ऐसा कर्म भी फल देने योग्य होता है।
(१०) उदय-प्राप्त-जो कर्म समग्र-सामग्री वशात् उदय को प्राप्त है, वह उदय-प्राप्त है। वह तो अवश्य ही फल देता है।
(११, १२, १३) जीव के द्वारा कृत, निष्पादित, परिणामित-जीव के द्वारा कृत का अर्थ है-कर्मबन्धन-बद्ध जीव के द्वारा कृत। क्योंकि रागादि परिणाम कर्मबन्धन से बद्ध जीव के ही होता है, कर्मबन्धनमुक्त सिद्ध जीव के नहीं। वीतराग के सिवाय संसारी जीव उपयोग स्वभाव वाला हो तो वही रागादि परिणामों से युक्त होता है, अन्य नहीं। कर्मबन्धन से बद्ध जीव के द्वारा उपार्जित कर्म ही फल विपाक के योग्य होता है।
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