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________________ ३८४ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५) अर्थ है- उदय या उदीरणा के द्वारा कर्मों का फलभोग प्राप्त होना विपाक है।' विपाक के स्वरूप को जान लेने से कर्मफल के नियमों का जानना आसान हो जाता है। सोलह विशेषताओं से युक्त कर्म ही विपाक (फलप्रदान) के योग्य द्रव्यदृष्टि से यह नियम भी जानना आवश्यक है कि कौन-कौन से कर्म फल देते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो किन विशेषताओं से युक्त कर्म फल भुगवाने योग्य होते हैं? प्रज्ञापनासूत्र के २३वें पद में कर्मफल भोग (अनुभाव ) के योग्य आठ ही कर्मों के अनुभाव (फलविपाक) के सम्बन्ध में चर्चा की गई है। प्रत्येक कर्म के फल (विपाक) का विचार करते समय उसके विपाक योग्य होने के निम्नोक्त सोलह उपनियमों का जानना आवश्यक है - (१) बद्ध, (२) स्पृष्ट, (३) बद्धस्पर्श-स्पृष्ट, (४) संचित, (५) चित, (६) उपचित, (७) आपाकप्राप्त, (८) विपाक-प्राप्त, (९) फल-प्राप्त, (१०) उदय-प्राप्त, (११) जीव के द्वारा कृत, (१२) जीव के द्वारा निष्पादित, (१३) जीव के द्वारा परिणामित, (१४) स्वयं उदीर्ण, (१५) दूसरे के द्वारा उदीरित अथवा ६) स्व-पर द्वारा उदीर्यमाण । इन्हें स्पष्टरूप से समझने के लिए इनकी संक्षिप्त व्याख्या करनी आवश्यक है (१) बद्ध- जो कर्म पहले बंधे हुए हों, वे ही फल देने योग्य होते हैं। आशय यह है कि जीव के राग-द्वेषादि या कषायादि परिणामों से आकृष्ट होकर जो कर्मपरमाणु आत्मप्रदेशों से बंध- श्लिष्ट हो गए हों, वे बद्ध कहलाते हैं। इस प्रकार से बद्ध कर्म ही अनुभाव (विपाक=फलभोग) के योग्य होते हैं। ऐर्यापथिक आनव के रूप में जो कर्म आते हैं रागद्वेषादि की स्निग्धता न होने से आत्मप्रदेशों से चिपकते नहीं हैं, वे आते हैं प्रथम समय में सामान्य बद्ध होते हैं, दूसरे १. (क) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन ) से भावांश ग्रहण पृ. २१५ (ख) सर्वार्थसिद्धि ८/२१ २. 44 (क) देखें प्रज्ञापनासूत्र के २३ वें कर्मप्रकृतिपद के पंचमद्वार के सूत्र १६७९ का मूल पाठ.कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स, पुट्ठस्स, बद्ध- फास-पुट्ठस्स, संचितस्स, चियस्स, उवचितस्स, आवागपत्तस्स, विवागपत्तस्स, फलपत्तस्स, उदयपत्तस्स, जीवेणं कडस्स, जीवेणं निव्वनियस्स जीवेणं परिणामियस्स, सयं वा उदिण्णस्स, परेण वा उदीरियस्स, तदुभएण वा उदीरिज्जमाणस्स । (ख) देखें - इसी सूत्र १६७९ के मूल पाठ का विशेषार्थ (आगम प्रकाशन समिति ब्यावर ) खण्ड (ग) Jain Education International ३, पद २३/ पृ. १९ .ताव इरियावहियं कम्मं निबंधइ सुहफरिसं दुसमयठिइयं । तं पढम समए बद्धं, बिइयसमए वेइयं, तइय समए निज्जिण्णं । .. - उत्तराध्ययन अ. २९ सू. ७१ का मूल पाठ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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