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विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ३८३ इसी प्रकार जो घातिकर्म हैं, वे आत्मगुणों के विघातक तथा विकृतिकारक होने का फलानुभाव करा सकते हैं, किन्तु अघातीकर्मों का जो फल विशेष है, उसे वे नहीं दे सकते। अघाती कर्म भी अपने-अपने फलविशेष का अनुभाव (वेदन) करा सकते हैं। इसी प्रकार घाती कर्म भी अपने-अपने फलविशेष का वेदन करा सकते हैं। एक नियम : सजातीय कर्मप्रकृति का सजातीय कर्मप्रकृति में संक्रमण हो सकता है
द्रव्यदृष्टि से कर्मफल के नियम का आशय यह भी सम्भव है कि कर्म की मूल प्रकृति आठ हैं, और उत्तर प्रकृतियाँ १४८ अथवा १५८ हैं। संक्रमण का सिद्धान्त जैनकर्मविज्ञान की मौलिक देन है। संक्रमण में अशुभ कर्म प्रकृति का शुभ कर्म प्रकृति में और शुभ कर्म प्रकृति का अशुभ कर्म प्रकृति में रूपान्तरण हो जाता है।
इसे आधुनिक मनोविज्ञान में रूपान्तरीकरण या मार्गान्तरीकरण कहते हैं। यह रूपान्तरण या मार्गान्तरीकरण का संक्रमण आयुष्य एवं मोहनीय कर्म के सिवाय केवल सजातीय कर्म प्रकृतियों में ही सम्भव है। फिर वह सजातीय कर्म प्रकृति मूल प्रकृति हो, या उत्तर प्रकृति हो। ___मनोविज्ञान में भी रूपान्तरण केवल सजातीय प्रकृतियों (वृत्तियों-प्रवृत्तियों) में ही सम्भव माना गया है। मनोविज्ञान और कर्मविज्ञान दोनों ही विजातीय प्रकृतियों (अथवा वृत्ति-प्रवृत्तियों) के साथ संक्रमण या रूपान्तरण नहीं मानते। कर्मविज्ञान के अनुसार पाप (अशुभ) कर्मों (अशुभ-कर्म प्रकृतियों) के बन्ध के फलस्वरूप होने वाले दुःख, अशान्ति, वेदना आदि से छुटकारा दया, दान, परोपकार, जनसेवा, आदि पुण्य (शुभ) कर्मों (शुभ कर्मप्रकृतियों) से पाया जा सकता है। परन्तु यह रूपान्तरण या मार्गान्तरीकरण केवल सजातीय कर्मप्रकृतियों में ही हो सकता है। जैसे-असातावेदनीय का सातावेदनीय में, तथैव सातावेदनीय का असातावेदनीय में, अशुभ नाम कर्म की विशिष्ट कर्मप्रकृतियों का अपनी-अपनी सजातीय शुभ नाम कर्म प्रकृतियों में, नीचगोत्र का उच्चगोत्र में, तथैव उच्चगोत्र का नीचगोत्र में संक्रमण (रूपान्तरण या मार्गान्तरीकरण) संभव है।
कर्मविपाक शब्द के शब्दशः दो अर्थ होते हैं-विविध पाक या विशिष्ट पाक। इसका फलितार्थ है-विशिष्ट रूप से कर्मों का पकना। अर्थात्-कषायादि की तीव्रतामन्दता के अनुसार कर्मों की विविध सुख-दुःखरूप फल देने की शक्ति का निहित होना कर्मविपाक कहलाता है। आगमिक परिभाषा में विपाक अनुभाव को कहते हैं। संक्षेप में
१. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित-'करण सिद्धान्तः भाग्यनिर्माण की प्रक्रिया' से ... पृ.८२-८३
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