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________________ ३८० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) (सत्) (२) द्रव्यप्रमाण (संख्या), (३) क्षेत्र, (४) स्पर्शना (स्पर्शन), (५) काल, (६) अन्तर, (७) भाग, (८) भाव और (९) अल्प-बहुत्व। तत्वार्थसूत्र में भी इसी प्रकार बताया गया है। यहाँ हम इनकी गहराई में जाना नहीं चाहते।' कर्मविपाक के नियम भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की परिधि में विपाक (कर्मफल) के सम्बन्ध में हमें यहाँ कुछ नियमों की झांकी देनी है। सर्वार्थसिद्धि और 'कसायपाहुड' में स्पष्ट कहा है-कर्मों का फल प्रदान करना बाह्य सामग्री पर आधारित है। दूसरे शब्दों में कहें तो कर्म मुख्यतया द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार ही फल देते हैं।२ कर्मफल के नियमों के जानने और न जानने के परिणाम कर्मफल के नियमों को इन्हीं अनुगमों के आधार पर जाना जा सकता है। जो कर्म के तथा कर्मफल के किस्मों को नहीं जानता, वह अध्यात्म को नहीं जान सकता और न ही आध्यात्मिक उत्क्रान्ति कर सकता है। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति के लिये कर्म के बन्ध, कारण, कर्ता, फलभोक्ता के साथ-साथ कर्मफल (कर्म-विपाक) के नियमों को समझना भी आवश्यक है। कर्मफल (विपाक) के नियमों को न जानने के कारण व्यक्ति प्रमाददश उद्धत एवं स्वच्छन्द होकर कर्मों को बांधता जाता है, किन्तु जब वे कर्म सत्ता (संचित) से निकलकर उदय में आते हैं, फल भुगवाने के लिए उन्मुख होते हैं, और कटु फल भोगना पड़ता है, तब दुःख और पश्चात्ताप का पार नहीं रहता। ___कई सीधे-सादे प्रकृति-भद्र मनुष्यों को पक्षाघात जैसा दुःसाध्य रोग घेर लेता है, वह पराधीन हो जाता है। उसकी स्थिति अत्यन्त दयनीय बन जाती है। उस समय वह किंकर्तव्यविमूढ़ बन जाता है। अगर कर्मफल के नियमों का वह जानकार होता तो पहले से ही अपने कृत, संचित एवं उपचित कर्म के प्रति सजग हो जाता और उदय में आने से पहले ही अपने द्वारा जाने-अनजाने पूर्वकृत कर्मों, का क्षय या संक्रमण करने का विचार १. (क) “निद्देसे पुरिसे कारणं कहिं केसु कालं कइविहं।' -अनुयोगद्वार सूत्र सू. १५१ (ख) “निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः।" -तत्त्वार्थसूत्र अ. १, सू.७ (ग) अणुगमे नवविधे पण्णत्ते तं जहा-संतपयपरूवणया १, दव्वपमाणं २, खित्त ३, फुसणा य ४, कालो य ५, अंतर ६, भाग ७, भाव ८, अप्पाबहुं ९, चेव॥ -अनुयोगद्वार सू. ८० (घ) 'सत्संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तर-भावाल्प-बहुत्वैश्च।' -तत्त्वार्थसूत्र अ. १, सू. ८ २. (क) सर्वार्थसिद्धि (आचार्य पूज्यपाद) ८/२१ पृ. ३९८ (ख) कसायपाहुड, गा. ५९/४६५ ३. जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ से भावांश ग्रहण पृ. २२८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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