________________
विविध कर्मफल : विभिन्न नियमों से बंधे हुए ३७९ प्रत्येक पदार्थ (Matter) के नियम के अनुसार वह अपना शोधकार्य आगे बढ़ाता है। ठीक इसी प्रकार जैनकर्म-विज्ञान-विशेषज्ञों ने आध्यात्मिक क्षेत्र में आत्मा के साथ कर्म के आम्नव, बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, संक्रमण, कर्मफल तथा कर्मफलभोग की स्थिति, कर्मफल की तीव्रता-मन्दता आदि के नियमों की खोज करके कुछ नियम-सूत्रों का प्रतिपादन किया। ___ यद्यपि उन्होंने स्वानुभूति के आधार पर नियमों की खोज की, किन्तु सबके ज्ञान का क्षयोपशम, बौद्धिक क्षमता, अनुभूति आदि एक-सी नहीं होती। यदि सम्यग्ज्ञान-प्राप्ति की तीव्रता, रुचि, प्रबल जिज्ञासा और शुद्ध भावना हो तो कर्म के नियमों की खोज भी सम्भव है और अनुभूति एवं बौद्धिक क्षमता का विकास भी। अपने आप भी सत्य की खोज करो : द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के परिप्रेक्ष्य में
इसीलिए भगवान् महावीर ने सूत्र दिया-अप्पणा सच्चमेसेज्जा-"अपने आप (आत्मा) से सत्य का अन्वेषण (खोज) करो।" जिसमें पूर्वाग्रह हो, जो हठाग्रही हो, अथवा ज्ञानप्राप्ति के लिए उत्सुक न हो, हृदय में वस्तुतत्त्व को जानने की तड़पन न हो, वह सत्य की खोज नहीं कर पाता। सत्य की खोज को ही दूसरे शब्दों में नियम की खोज कह सकते हैं। ___ भगवान् महावीर ने सत्य की खोज के लिए चार मुख्य नियमों का प्ररूपण किया। उन्होंने बताया कि किसी भी घटना, अथवा वस्तुतत्त्व का सम्यक्परिज्ञान करना हो तो कम से कम इन चार नियमों से उसका समीक्षण-अनुप्रेक्षण करो। उसके पश्चात् ही उस विषय में निर्णय करो। जैनदर्शन ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टियों के आधार पर नियमों का अन्वेषण किया है। द्रव्यादेश, क्षेत्रादेश, कालादेश और भावादेश, इन चार आदेशों के अनुसार उत्तरकाल में जैनाचार्यों ने इनका विकास किया और कर्म से सम्बन्धित नियमों का विस्तार से प्रतिपादन किया।' सत्य की खोज के लिए अनुयोगद्वार में उपक्रम और अनुयोग का आश्रय ___ इसके अतिरिक्त सत्य की खोज के लिए उन्होंने अनुयोगद्वार में उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय, ये चार द्वार बताए गये हैं। इन्हीं के आधार पर वहाँ और भी द्वार सत्य (वस्तुतत्त्व के ज्ञान) के लिये प्रतिपादित किये गए हैं-निर्देश, पुरुष (स्वामित्व), कारण, (साधन), कहाँ (अधिकरण), किनमें, काल (स्थिति), कितने प्रकार (विधान)। इसी प्रकार वहाँ इसी सन्दर्भ में नौ प्रकार के अनुगम बताए हैं, यथा-(१) सत्पदप्ररूपणा
१. (क) जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण पृ. २२८
(ख) उत्तराध्ययन अ. ६ गा. २
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org