SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५). प्रश्न ३५. प्रभो! किसी-किसी के द्वारा मीठी वाणी बोलने पर भी वह कटु और अप्रिय मालूम होती है, नहीं सुहाती है, यह किस पापकर्म का फल है ? .. उत्तर ३५. गौतम! जिसने स्वादलोलुप होकर पूर्वभव में पंचेन्द्रिय आदि जीवों का भक्षण किया हो, उसकी मिष्ट भाषा भी पूर्वोक्त पापकर्मोदय से अप्रिय लगती है। ___प्रश्न ३६. प्रभो! जीव को अधिकाधिक रोग किस पापकर्म के कारण उत्पन्न होते . उत्तर ३६. गौतम! जिन जीवों ने पूर्वजन्म में अनन्तकायिक कन्द अत्यधिक आसक्ति पूर्वक खुश होकर खाये हैं, वह अगले जन्म में अधिकाधिक रोगों से ग्रस्त रहता प्रश्न ३७. भगवन्! मनुष्य को अत्यधिक निद्रा किस पापकर्म के कारण आती है? उत्तर ३७. गौतम! जिसने पूर्वभव में मदिरापान किया है, उसे आगामी जन्म में अधिक नींद आती है, वह आलस्य, सुस्ती और प्रमाद से घिरा रहता है। प्रश्न ३८. भगवन्! कण्ठमाला का रोग किस पापकर्म के फलस्वरूप होता है? उत्तर ३८. गौतम! जिसने पूर्वभव में जाल में मछलियों को पकड़कर उन्हें मारा है, मछलियों का शिकार किया है, अथवा जलचरों को पकड़कर उनका गला काटा है, वह उक्त पाप के कारण कण्ठमाला रोग से ग्रस्त होता है। प्रश्न ३९. भगवन्! किसी-किसी के शरीर में प्रत्यक्ष कोई रोग नहीं दिखाई देता, फिर भी वह अनेक मानसिक रोगों, चिन्ताओं, संकटों और बहमों से घिरा रहकर दुखित होता रहता है, यह किस पापकर्म का फल है ? ___उत्तर ३९. जो मनुष्य रिश्वत (घूस) खाकर सच्चे को झूठा सिद्ध कर देता है, वह इस पाप के फलस्वरूप अनेक संकटों, बहमों, आधि-व्याधियों से ग्रस्त होकर दुःखी रहता प्रश्न ४0. प्रभो! किसी के शरीर में नेहरूबाला रोग किस पाप के फलस्वरूप होता है? उत्तर ४0. गौतम! जो व्यक्ति बिना छना पानी पीते हैं, उन्हें उस पाप के | फलस्वरूप यह रोग होता है। प्रश्न ४१. भगवन्! मनुष्य आँखों से धुंधा (मंजर) किस पाप के फलस्वरूप होता है? उत्तर ४१. गौतम! जिसने पूर्वजन्म में सबको समदृष्टि से न देखकर पक्षपात किया हो, वे आँखों से मंजर होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy