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________________ ३६६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) . प्रश्न १३. भगवन्! कोई-कोई मनुष्य रात-दिन किसी न किसी व्याधि से घिरा रहता है, वह किस पापकर्म का फल है ? उत्तर १३. गौतम! जो मनुष्य बड़, पीपल के फलों एवं गुल्लरों को आसक्ति पूर्वक खाता है, तथा चूहे आदि जानवरों के पकड़ने के पीजरों तथा पक्षियों आदि को फंसाने के फंदों को बेचता है; वह मनुष्य उस पाप के फलस्वरूप आजीवन किसी न किसी रोग से ग्रस्त रहता है। प्रश्न १४. भगवन्! किसी मनुष्य का शरीर इतना स्थूल और बेडौल हो जाता है कि वह अपने हाथ से अपना शारीरिक कार्य भी नहीं कर पाता, ऐसा किस पापकर्म के उदय से होता है? ___ उत्तर १४. गौतम! जो अपने मालिक के यहाँ चोरी करता है तथा स्वयं साहूकार बन कर दूसरों का माल हड़प जाता है, वह उस पाप कर्म के फलस्वरूप स्थूल और बेडौल शरीर पाता है। प्रश्न १५. भगवन्! किसी-किसी मनुष्य का चित्त भ्रान्त (विक्षिप्त) हो जाता है, वह पागल हो जाता है, ऐसा किस पापकर्म के उदय से होता है ? उत्तर १५. गौतम! जाति आदि का मद (अहंकार) करने से तथा मद्यपान, मांसाहार, जीव-वध करने तथा बिना देखे-भाले लापरवाही से कदम बढ़ाने से एवं गुप्त रीति से अनाचार सेवन के पाप से मनुष्य का चित्त भ्रान्त एवं विक्षिप्त हो जाता है। प्रश्न १६. भगवन्! किसी के स्त्री, पुरुष, पुत्र, पुत्री और शिष्य-शिष्या आदि किस पापकर्म के फलस्वरूप कुपात्र होते हैं, या मिलते हैं? उत्तर १६. गौतम! जो ईर्ष्यावश अकारण ही सगे-सम्बन्धियों तथा स्नेहीजनों में परस्पर वैर-विरोध, मनोमालिन्य या रंजिश खड़ा करवा देते हैं, या बढ़ा देते हैं, वे कुपात्र होते हैं, अथवा उन पापकर्मियों को कुपात्र जन मिलते हैं।' प्रश्न १७. भगवन्! किसी का बड़े लाड़-प्यार से पाला-पोसा हुआ पुत्र युवावस्था में ही मर जाता है, वह किस पापकर्म का फल है? उत्तर १७. गौतम! जो दूसरों की रखी हुई अमानत (धरोहर) को हड़प जाते हैं, उस पापकर्म का पश्चात्ताप भी नहीं करते, उलटे उन दुखियों को धमकाते हैं; ऐसे लोगों के पापकर्मवश जवान पुत्र अकाल में ही मर जाता है। प्रश्न १८. भगवन्! किस पापकर्म के उदय से नारी बचपन में ही विधवा हो जाती १. (क) लघु गौतम पृच्छा (भाषान्तर) (ख) गौतम पृच्छा (पद्यानुवाद) से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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