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________________ कर्म-महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल ? ३४७ गोत्रकर्म का फलविपाक है- उच्च गोत्रकर्म के उदय में आने पर उच्चजाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य की विशिष्टता का, तथा नीचगोत्रकर्म के उदय में आने पर नीच जाति आदि की विशिष्टता का अनुभाव होना । तात्पर्य यह है कि उच्चगोत्र कर्म के उदय में आने पर उस-उस द्रव्य के संयोग से या विशिष्ट पुरुष के संयोग से नीच जाति आदि में जन्मा या संयोग प्राप्त व्यक्ति भी कुल, बल आदि से सम्पन्न होकर लोकप्रियता का फल प्राप्त करता है, उसकी प्रसिद्धि, प्रशंसा एवं यशकीर्ति बढ़ जाती है। इसके विपरीत नीच गोत्र कर्म के उदय से उच्च जाति आदि में उत्पन्न या संयोग प्राप्त व्यक्ति भी बदनाम एवं अपकीर्ति भाजन, कलंकित बन जाता है, उस व्यक्ति को इस रूप फल संवेदन होता है। अन्तराय कर्म का फल विपाक है-इस कर्म के उदय में आने पर दान, लाभ, भोग, उपयोग एवं वीर्य में अन्तराय (विघ्न) आ जाना, दानादि की शक्ति कुण्ठित हो जाना, तपश्चर्या की शक्ति में बाधा पड़ना ।" यह हुई सामान्य रूप से अष्टविध मूल कर्म प्रकृतियों के फल भोग की संक्षिप्त झाँकी । फलदान की दृष्टि से कर्मों का जातिगत अष्टविध वर्गीकरण निष्कर्ष यह है कि संसार-अवस्था में कर्म फलदान की दृष्टि से जीव (आत्मा) की अनुजीवी और प्रतिजीवी, दोनों प्रकार की शक्तियों का घात करता है । इस दृष्टि से कर्म के अनेक भेद-प्रभेद हो जाते हैं। किन्तु कर्मविज्ञान-पुरस्कर्ता सर्वज्ञ तीर्थंकरों तथा उनके अनुगामी आचार्यों एवं मनीषी मुनिवरों ने जाति की अपेक्षा से कर्म का वर्गीकरण करके उसे आठ भागों में विभक्त कर दिया। वे आठ प्रकार ये हैं (१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय कर्म (५) आयुष्य कर्म, (६) नामकर्म, (७) गोत्रकर्म और (८) अन्तराय कर्म । १. देखें - प्रज्ञापनासूत्र के २३ वें कर्मप्रकृति पद के अनुभाव द्वार का विवेचन ( आ. प्र. समिति, ब्यावर) १०२० से २६ तक ( तृतीय खण्ड) २. देखें- “णाणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स जीवेण बद्धस्स पुट्ठस्स, बद्ध फास-पुट्ठस्स, संचितस्स, चियस्स, उवचितस्स, आवागपत्तस्स, विवागपत्तस्स, फलपत्तस्स, उदयपत्तस्स, जीवेणं कडस्स जीवेण णिव्वत्तियस्स, जीवेणं परिणामियस्स, सयं वा उदिणण्स्स परेण वा उदीरियस्स, तदुभयेण वा उदीरिज्जमाणस्स, गतिं पप्प, ठितिं पप्प, भवं पप्प, पोग्गलं पप्प, पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविहे अणुभावे पण्णत्ते ?" - प्रज्ञापना सूत्र के २३वें कर्मप्रकृति पद के पंचम अनुभाव द्वार का ज्ञानावरणीयकर्मफलसम्बन्धी प्रश्न। इसी प्रकार के अष्ट कर्म सम्बन्धी प्रश्न के कर्मफल की विचित्रता समझ लेनी चाहिए। -सं. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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