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________________ ३४६ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५) जीव जानने योग्य (ज्ञातव्य ) का ज्ञान नहीं कर पाता, जिज्ञासा होने पर भी जानने में समर्थ नहीं होता, अथवा पहले जानकर बाद में इस कर्म के उदय से नहीं जान पाता, उसका ज्ञान तिरोहित हो जाता है। ' दर्शनावरणीय कर्म का फल विपाक है-उस कर्म के उदयकाल में जीव की (इन्द्रियों और मन-बुद्धि आदि अन्तःकरण से ) दर्शन (सामान्य ज्ञान या सामान्य अनुभव) करने की शक्ति को ढांक देना । आत्मा के दर्शनगुण के आवृत हो जाने पर जीव किसी भी सजीव-निजीव पदार्थ का बाह्यकरण और अन्तःकरण से सामान्यज्ञान (दर्शन करने, अनुभव करने) में मन्द, मन्दतर एवं मन्दतम हो जाता है। अवधिदर्शनावरणीय एवं केवलदर्शनावरणीय ये दोनों आत्मा से होने वाले सामान्य ज्ञान को आवृत कर देते हैं। वेदनीय कर्म का फल विपाक है - जीव को सुख और दुःख का संवेदन (अनुभव) कराना। असातावेदनीय कर्म का उदय होने पर सुख के साधन विद्यमान होते हुए भी सुख का अनुभव नहीं कर सकता। इसी प्रकार सातावेदनीय का उदय होने पर दुःख के साधन विद्यमान होते हुए भी व्यक्ति दुःख का अनुभव नहीं करता, बल्कि सुखानुभव करता है। मोहनीय कर्म का फल विपाक है- उदय में आने पर आत्मा के सम्यक्त्व गुण को कुण्ठित और अवरुद्ध कर डालता है, इससे किसी को मिथ्यात्व का, किसी को मिश्र का और किसी को प्रशमादि परिणामों का वेदन होता है। कषाय का वेदन होने पर क्रोधादि परिणामों का प्रादुर्भाव हो जाता है। नोकषाय का वेदन होने पर हास्यादि का परिणाम हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि मोहनीय कर्म का साक्षात् फल आत्मा के ज्ञान, दर्शन (सम्यक्त्व) और चारित्र गुणों का घात और कुण्ठित करना है। आयुष्यकर्म का फलविपाक है - इस कर्म के उदय में आने पर परनिमित्त (शस्त्रादि से, अथवा विष, अन्न आदि) से अथवा स्वभावतः (शीत, उष्णादिरूप पुद्गल परिणामों से, अथवा रोग, आतंक, भय, चिन्ता, शोक आदि से) भुज्यमान आयु का अपवर्तन (ह्रास) होना। तथा नरकायु आदि कर्मों के उदय से नरकायु आदि कर्मों का स्वतः वेदन होना । नामकर्म का फलविपाक है - नामकर्म के उदय में आने पर इष्ट शब्दादि १४ प्रकार के शुभ नामकर्म के फल का, और इसके विपरीत इन्हीं अनिष्टशब्दादि १४ प्रकार अशुभ नामकर्म के फल का वेदन होना। ये दोनों स्वनिमित्तक एवं पर-निमित्तक दोनों प्रकार के होते हैं। १. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेय बोधिनी टीका भाग ५, पृ. १८५-१८६ २. जिनवाणी, कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'कर्मविपाक" लेख से भावांश ग्रहण, पृ. १२१ Jain Education International 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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