SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म-महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल ? कर्म-महावृक्ष एक : उसके पुष्प-फलादि असंख्य और अनन्त कर्म एक महावृक्ष है। उसकी अगणित शाखाएँ (डालियाँ और टहनियाँ) हैं। उसके असंख्य पत्ते और पुष्य हैं। उसके अनन्त फल हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार राग और द्वेष, ये कर्म-महावृक्ष के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है; इसलिए मोह कर्मवृक्ष का' मूल है। साथ ही कर्म जन्म-मरणरूप संसार का मूल है। और जन्ममरण ही दुःख का मूल है।' मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय, ये चारों कर्मवृक्ष को अंकुरित करते हैं। अतः मोहरूपी मूल से ही ये अंकुर-चतुष्टय फूटते हैं। दूसरे शब्दों में ये चारों मोहोत्पन्न अंकुर हैं। तृष्णा, कामना, वासना, लालसा, आसक्ति, गृद्धि आदि विविध वृत्तियाँ उसकी लताएँ हैं; जो कर्म-महावृक्ष से लिपटी हुई हैं। वे कर्म को उत्तेजित करके जन्म-मरण रूप संसार में वृद्धि करती हैं। मन-वचन-काया के योग से होने वाली विविध प्रवृत्तियाँ, हलचलें, कम्पन, आदि कर्ममहावृक्ष की अगणित शाखाएँ हैं। कर्म की ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध मूलप्रकृतियाँ तथा उनकी उत्तरप्रकृतियाँ उसकी प्रशाखाएँ (डालियाँ व टहनियाँ) हैं। कर्मों के आस्रव और बन्ध के असंख्य प्रकार और परिणामरूप पर्याय कर्ममहावृक्ष के पत्ते (पत्र) हैं। शुभ और अशुभ कर्म अथवा पुण्यकर्म और पापकर्म तथा उसके असंख्य परिणामरूप पर्याय कर्मवृक्ष के पुष्प (फूल) हैं। __शास्त्रीय भाषा में कहें तो कर्मरूपी महावृक्ष के शब्द की अपेक्षा असंख्यात भेद हैं। अनन्तानन्त प्रदेशात्मक स्कन्धों के परिणमन की अपेक्षा कर्म के अनन्त भेद होते हैं। ज्ञानावरणादि कर्मों के अविभागी प्रतिच्छेदों की अपेक्षा भी उसके अनन्त भेद कहे जाते हैं। १. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाई-मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई-मरणं वयंति। -उत्तराध्ययन, ३२/६ २. (क) देखें-उत्तराध्ययन (२३/४८) में-भवतण्हा लया वुत्ता भीमा-भीमफलोदया। (ख) "मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा।"-उत्तराध्ययन ३२/८ (ग) महाबंधो भाग १ की प्रस्तावना (पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर) से पृ. ७३. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy