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________________ ३४0 कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५). दुःखविपाक और सुखविपाक में कर्मफल भोग का सजीव चित्रण कर्मविज्ञान के सन्दर्भ में विपाक सूत्र में सुखविपाक और दुःखविपाक दोनों श्रुतस्कन्धों में कर्मफल-भोग के सजीव चित्र प्रस्तुत किये हैं। उनमें प्रथम श्रुतस्कन्ध के १0 अध्ययन दुःखरूप फलप्राप्ति के और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १0 अध्ययन सुखरूप फल प्राप्ति के हैं। दुःखविपाकसूत्र में सिंहपुर के अन्यायी-अत्याचारी दुरात्मा पापकर्मा सिंहरय नरेश के पुत्र दुर्योधन दण्डनायक का आख्यान है। सत्ता, पद, एवं वैभव के नशे में दुर्योधन दण्डनायक (फौजदार) किसी को जान से मरवा डालता, किसी को सताता, दुःख देता अथवा लोगों को लूट लेता, किसी महिला का शीलहरण कर लेता। इस प्रकारका क्रूरतापूर्ण जीवन बिताते हुए उसे बहुत-सा समय व्यतीत हो गया था। दुःख देने का फल दुःख ही मिलता है। इस बात को वह भूल गया था। सत्ता के मद में आकर वह कहा करता-“कौन तीसमारखां मेरे सामने टिक सकता है ?" दुर्योधन को पुण्य कमाने के लिए धन और साधन मिले थे, किन्तु वह विपरीत दृष्टि का होने से अधिकाधिक पापकर्म करता गया। दूसरों को दुःख देने का अन्तिम फल दुःख ही होता है, इस बात को वह भूल गया था। उसके क्षणिक सुख पर अनन्तकाल के दुःखों के बीज पड़े हुए थे। ___पापकर्म एक दिन उदय में अवश्य आता है। यही हाल पापकर्म के पागल बने हुए मदान्ध दुर्योधन का हुआ। मृत्यु से पूर्व वह असह्य रोग से पीड़ित हुआ। वैद्य-हकीमों के सभी उपाय निष्फल हुए। वह दीर्घकाल तक असह्य दारुण वेदना भोगकर रिब-रिबकर मरा। और अपने क्रूर कर्मों के फलस्वरूप २२ सागरोपम की स्थितिवाले नरक में गया। वहाँ से यातनापूर्ण जीवन बिताकर मथुरा-नगरी में श्रीदाम राजा के यहाँ नन्दीवर्द्धन नामक पुत्ररूप में जन्म लिया। परन्तु यहाँ भी उसके मूल कुसंस्कार गये नहीं। दुष्ट बुद्धिपूर्वक सोचने लगा-पिता के हाथ में राज्य रहेगा, तब तक मैं सुखी नहीं हो सकूँगा। पिता जीवित हैं, तब तक मेरे हाथ में राज्य नहीं आ सकेगा। अतः पिता को मरवा डालना चाहिए। इस प्रकार की राक्षसी भावना को क्रियान्वित करने के लिए चित्त नामक एक नापित को मंत्रीपद का लोभ देकर साध लिया। परन्तु किसी के प्राण लेना आसान न था। नापित ज्यों ही उस्तरे से राजा के मस्तक पर घाव करना चाहता था त्यों ही भयवश हाथ रुक गया। राजा उसके मनोभाव को ताड़ गया। राजा के द्वारा उसे अभयदान का आश्वासन मिलने से उसने सारी बात स्पष्ट कर दी। राजा ने तुरंत युवराज नंदिवर्द्धन को - १. देखें, विपाकसूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध (दुःखविपाक) में छठा अध्ययन (नन्दिवर्धन) पृ. ७१ से ७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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