________________
३२२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५).
बीज बोने के काल के समान बंध का काल है। बंध के बाद आता है-सत्ता का काल। कर्म जब तक सत्ताकाल या अबाधाकाल में रहता है, तब तक फलभोग कराने में वह कार्यक्षम नहीं होता। अबाधाकाल पूर्ण होने पर ही कर्म फल देने (विपाक) की स्थिति में आता है। अर्थात्-वह पूर्वबद्ध या पूर्वसंचित कर्म सत्ताकाल पूर्ण होते ही उदय में आकर फल देने को उद्यत होता है। फलदान की भी एक अवधि (कालसीमा) होती है, इसे जैन कर्मविज्ञान की भाषा में स्थितिकाल कहते हैं।' कर्मों के अर्जन का कार्य क्षणभर में किन्तु फलभोग का कार्य काफी बाद में
आगे हम कर्मविज्ञान के बन्धविषयक खण्ड में प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध एवं प्रदेशबन्ध के विषय में विस्तृत रूप से विवेचन करेंगे।
निष्कर्ष यह है कि क्रिया करते ही कर्म जिस क्षण अर्जित हुआ, उसी क्षण उस फल का उपभोग नहीं होता। कर्मों के अर्जन का काल तो क्षणभर का है किन्तु उपभोग का काल काफी लम्बा है। जीव अपने कृतकर्मों का फलभोग काफी बाद में, और काफी लम्बे अर्से तक करता है। अतः कर्म-अर्जन का और कर्मफलभोग के नियम अलग-अलग हैं। कर्मफल और कर्मफलोपभोग में अन्तर क्यों ?
परन्तु कर्मविज्ञान पर यह जो आक्षेप किया जाता है कि . . . कर्म तो हम अभी करेंगे और फल भोगेंगे अगले जन्म में यह बिलकुल निराधार और ऐकान्तिक है। कभी-कभी तो कृतकर्म का फल इसी जन्म में और तत्काल भी मिल जाता है, कभी इसी जन्म में कुछ देर से मिलता है। यह बद्ध कर्म के स्वभाव (प्रकृति) एवं अनुभाग (रस) पर निर्भर है। कई बार किसी-किसी कृतकर्म का फल कई वर्षों बाद यहीं मिल जाता है, कभी अगले जन्म में या जन्मों में मिलता है। स्थानांगसूत्र में कर्म विज्ञान के सन्दर्भ में स्पष्ट रूप से उद्घोषणा की गई है कि “इस लोक में किये हुए कई सत्कर्म इस लोक में शुभफल (सुखरूप फल) विपाक से युक्त होते हैं, इहलोक में किये हुए कई शुभ कर्म परलोक में शुभ (सुखरूप) फल विपाक से युक्त होते हैं। इसी प्रकार इस लोक में किये हुए दुष्कर्म इस लोक में अशुभ (दुःखरूप) फल विपाक से युक्त होते हैं, तथैव इस लोक में आचरित कई दुष्कर्म परलोक में भी अशुभ (दुःखरूप) फल-विपाक से युक्त होते हैं।"३
१. कर्मवाद से भावांश ग्रहण पृ. ४२-४३ २. देखें-जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में आ. रजनीश द्वारा किया गया आक्षेप पृ. २७३ ३. "इहलोगे सुचिन्ना कम्मा इहलोगे सुहफल विवागसंजुत्ता भवंति।
इहलोगे सुचित्रा कम्मा परलोगे सुहफल विवाग-संजुत्ता भवंति। इहलोगे दुचिन्ना कम्मा इहलोगे दुहफलविवाग-संजुत्ता भवंति । इहलोगे दुचित्रा कम्मा परलोगे दुहफलविवाग-संजुत्ता भवति॥" -स्थानांगसूत्र ठा. ४ उ. २
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org