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कर्मफल : वैयक्तिक या सामूहिक ? २९७ कर्म की अशुद्धता दूर हो तो समूह के लिए किये गए शुभ कर्म का फल भी सुखकारक
श्री केदारनाथजी का यह मन्तव्य भी विचारणीय है-हमारे कर्म का फल खुद हमें तो भोगना ही पड़ता है, साथ ही साथ दूसरों को भी भोगना पड़ता है; इस नियम पर अब हमें विश्वास रखना चाहिए। मानवजगत् का न्याय सामूहिक पद्धति पर चलता है। इसलिए हमारे कर्मों का फल (केवल) हमें (ही) न मिलकर समूह को भी मिलेगा।. ... प्रेमी और कल्याण-इच्छुक माता-पिता अपनी सन्तान पर अच्छे संस्कार डालने और उसकी उन्नति के लिए खुद संयमी, सद्गुणी और सदाचारी रहते हैं। इसी प्रकार सारी मानव-जाति पर हमारा प्रेम हो, सबके प्रति हमारे मन में सहानुभूति हो तो समस्त मानव-जाति के लिए (कर्मविज्ञान के अन्तर्गत) धर्ममार्ग (संवर-निर्जरापथ) से कष्ट सहन करने में हमें धन्यता का अनुभव होगा। . . . इसके लिए हमें अपने कर्मों और संकल्पों का विचार करके उनमें रहने वाली अशुद्धता दूर करनी चाहिए। (कम से कम) हमें शभ कर्म करने चाहिए और शुभ संकल्प धारण करने चाहिए। सबकी शुद्धि और उन्नति के लिए हमें सत्कर्मरत और सद्गुणी बनना चाहिए। ... .केवल अपने विषय की संकुचित भावना से कष्ट सहन करने के बजाय मानवता और एकता की विशाल भावना से कष्ट सहन करने में जीवन की सच्ची सार्थकता है।' . आशय यह है कि विचारक मानव को शुद्ध और शुभ कर्म करना चाहिए, जिसका लाभ स्वयं को ही नहीं व्यापक समाज को भी मिले। जैसे माता-पिता स्वयं संयमी सदाचारी रहकर संतान के अभ्युदय एवं सुसंस्कार के लिए नाना कष्ट सहते हैं वैसे ही व्यापक भावना से संयमी सदाचारी रहकर विश्व के प्रति वात्सल्यभाव रखकर कष्ट सहन करे। तभी अपने सुकर्म का फल स्वयं के साथ-साथ समग्र समाज को मिल सकता
- इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा प्रतिदिन उभयकाल प्रतिक्रमण के समय ऐसी
भावना करो-'मित्ती मे सव्वेभूएसु वेरं मज्झ न केणइ।' मेरी समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री .: है, किसी के साथ भी वैर विरोध नहीं है। ‘सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं' इस सामायिक पाठ में उक्त श्लोक में भी प्राणिमात्र के प्रति मैत्री, गुणीजनों के प्रति प्रमोदभावना, दुःखित जीवों के प्रति करुणाभावना और विपरीतवृत्ति-प्रवृत्ति वालों के प्रति माध्यस्थ्य भावना का स्रोत भी सामूहिक रूप से पुण्य-बन्ध एवं पुण्यफल का प्रतिपादक है।
१. जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित श्री केदारनाथजी के 'कर्मपरिणाम की परम्परा'
लेख से, पृ. २४९
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