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कर्मफल : वैयक्तिक या सामूहिक ? २९५
यह कथन उपादान कारण की अपेक्षा से सत्य है; किन्तु निमित्त कारण की अपेक्षा से पापी जीव के परिवार, वर्ग, जाति, धर्म-सम्प्रदाय आदि से सम्बद्ध जो अनेक लोग समूह रूप से कृत, कारित या अनुमोदित रूप में होते हैं, वे भी अपने-अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार उसका फल प्राप्त करते हैं, इसलिए मुख्यकर्ता द्वारा कृत उक्त अशुभ (पाप) कर्म की प्रेरणा, समर्थन-अनुमोदन करने वाले उससे सम्बद्ध जो भी पारिवारिक वर्गीय, जातीय या संस्थाकीय, सम्प्रदायीय जन हैं, वे भी किसी न किसी रूप में उक्त कर्म के कर्ता होने पर वे भी सामूहिक रूप से कर्मफल भोगते हैं। इस दृष्टि से सामूहिक रूप से कृत कर्म
और उसका प्राप्त सामूहिक फल भी यथार्थ है, क्योंकि आखिरकार परिवार वर्ग, जाति आदि के लोग भी किसी न किसी रूप में अपने परिवार आदि के व्यक्ति द्वारा कृत पापकर्म के परोक्ष रूपेण हिस्सेदार बनते हैं। तब फिर उन्हें उस कर्म में सहायक होने से उसका फल अपने-अपने कृत कर्म की मात्रानुसार भोगना पड़ेगा ही। कर्म सामूहिक, सुख-दुःख-संवेदन अपना-अपना, फलभोग पृथक्-पृथक्
इस विषय में आचारांग' का यह सूत्र भी मननीय है। उसका भावार्थ यह है-"हे पुरुष! स्वजनादि तुझे त्राण देने (रक्षा करने) या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। दुःख और सुख (का संवेदन) प्रत्येक आत्मा का अपना-अपना है, यह जानकर (विषयभोगों या पर-पदार्थों से अनासक्त रहे)।
कुछ मनुष्य भोगों की ही अहर्निश चिन्ता करते रहते हैं। कई मानवों को तीन प्रकार से यानी अपने, दूसरों के अथवा दोनों के, अथवा कृत, कारित, अनुमोदित रूप से, सम्मिलित प्रयत्न से अल्प या बहुत अर्थ (धन) की मात्रा (संचित) हो जाती है। फिर वे सब उसके उपभोग के लिए उस अर्थमात्रा पर आसक्त (गृद्ध) हो जाते हैं। उन सबके उपभोग के बाद बची हुई विपुल सम्पत्ति के कारण वह महान् साधन-सम्पदा से सम्पन्न हो जाता है। फिर जीवन में कभी ऐसा समय आता है कि उस प्रचुर सम्पत्ति में से दायाद हिस्सा बँटा लेते हैं, चोर उसे चुरा ले जाते हैं, राजा (शासनकर्ता) उसे छीन लेते हैं, वह अन्य प्रकार से (दुर्व्यसनों, या प्राकृतिक प्रकोपों से) नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है। गृहदाह (आगजनी) आदि से जलकर भस्म हो जाती है।"
१. “जाणितु दुक्खं पत्तेयं सायं भोगामेव अणुसोयंति। इहमेगेसिं माणवाणं तिविहेण जा वि से तत्थ
मत्ता भवति अप्पा वा बहुगा वा। से तत्थ गढिए चिट्ठति भोयणाए।" "ततो से एगया विपरिसिटुं संभूतं महोवगरणं भवति। तं पि से एगया दायादा विभयंति, अदत्तहारोवा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपति, णस्सति वा से, विणस्सति वा से। अगारदाहेण वा से डज्झति।" "इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई वाले पकुब्बमाणे, तेण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेइ।।"
-आचारांग १/२/४, सू. ८२
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