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२९४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) माता-पिता के कर्म का फल संतान को; क्यों और कैसे?
परिवार समाज की एक इकाई है। परिवार में माता-पिता आदि स्वयं कष्ट उठाकर, सब कुछ सहन करके बच्चों का पालन-पोषण करते हैं। विशेषतः माता अपनी संतान का अनेक कष्ट उठाकर पालन-पोषण करती है, उन्हें संस्कार और शिक्षण भी देती-दिलाती है। माता या पिता बालकों के पालन-पोषण-संवर्द्धन का कर्म करते हैं, तब वह कर्म और कर्मफल बालकों में संक्रान्त हो जाता है। माता-पिता के किये हुए कर्म का फल बालकों को प्राप्त होता है।
___ कई बार माता-पिता के अनेक रोग आनुवंशिकता के कारण उनके बच्चों के संक्रान्त हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? अपराध माता-पिता का और परिणाम भोगना पड़ता है, निरपराध बच्चों को! इसी प्रकार पैतृक विरासत के रूप में माता-पिता के कुछ गुण-दोष भी सन्तानों को मिलते हैं। पिता के धन का लाभ उत्तराधिकार में पुत्रों को मिलता है, किन्तु कभी-कभी पिता के कर्ज या व्यापार में घाटे की धनहानि भी पुत्रों को भोगनी पड़ती है।
यह आकस्मिक या अकारण नहीं हो जाता। जैन कर्मविज्ञान के अनुसार सोचा जाए तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि उन बच्चों को अपने पूर्वकृत (पूर्वजन्म या कई जन्मों पूर्व किये हुए) शुभाशुभ कर्म का उदय इस जन्म में अमुक माता-पिता या परिवार में जन्म लेने
और अपने पूर्वकृत कर्मों के फल के रूप में गुण-दोषों की प्राप्ति या धन के लाभ-हानि का संयोग प्राप्त होता है। अतः संक्रमण सामूहिक होता है किन्तु संवेदन व्यक्तिगत होता है। इसमें वह संक्रान्त नहीं होता। वैयक्तिक कर्म का संक्रमण नहीं होता, न ही विनिमय होता
उपादानकारण की अपेक्षा कर्मफलभोग व्यक्तिगत, निमित्तकारण की अपेक्षा से सामूहिक
इसलिए उत्तराध्ययनसूत्र का यह कथन भी यथार्थ है कि “पापी जीव के दुःख को न जाति वाले बंटा सकते हैं, न मित्रवर्ग, न पुत्र और न ही बन्धु-बान्धव। (पूर्वकृत अशुभ कर्म उदय में आने पर) व्यक्ति स्वयं अकेला ही दुःख (जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, रोग, शोक, चिन्ता आदि दुःख) भोगता है, क्योंकि कर्म कर्ता का ही अनुगमन करता है। अर्थात्-कर्ता को ही कर्म का फल भोगना पड़ता है।"२
१. वही, भावांश ग्रहण पृ. १८२ २. न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बांधवा।
एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं॥
-उत्तराध्ययन १३/२३
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