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________________ २७४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) शुभ या अशुभ अध्यवसायों के अनुसार उनमें फल देने की शक्ति स्वतः उत्पन्न हो जाती है। आशय यह है-जब जीव (आत्मा) के साथ कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध या श्लेष होता है, अर्थात्-कर्मपरमाणुओं के साथ आत्म-चेतना का सम्पर्क होता है, तब वही शक्ति काल-परिपाक होने पर (समय पाकर) उस कर्मकर्ता जीव (आत्मा) को सुख या दुःख के रूप में फल प्रदान करती है। . जैन कर्मविज्ञान का यह स्पष्ट सिद्धान्त है कि जीव (आत्मा) के साथ सम्बद्ध होगे : पर ही कर्मपरमाणु अपना फल दे सकते हैं। आत्म-चेतना के साथ सम्पर्क हुए बिना ही कर्म अपना फल देते हैं, यह जैनकर्म-विज्ञान का सिद्धान्त नहीं है। प्रत्यक्ष में हम देखते हैं कि जड़ पदार्थों का अन्य जड़ पदार्थों पर भी संयोग के . कारण प्रभाव दिखाई देता है। जैसे- पारस संयोग पाकर लोहे को स्वर्णरूप में परिवर्तित कर देता है। वस्त्र विभिन्न रंगों के परमाणुओं का संयोग पाकर चित्र-विचित्र रंगों को प्राप्त हो जाता है, तो फिर चेतन का संयोग पाकर जड़ कर्म अधिक शक्तिशाली बन जाएँ, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?' उदाहरण द्वारा तथ्य का स्पष्टीकरण एक उदाहरण से हम इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं-मान लीजिए, एक लोटे में भांग अधिक से अधिक तेज घोंटकर रखी हुई है, अथवा अंगूरी शराब बोतल में रखी हुई है; क्या वह भंग लोटे को और शराब बोतल को नशा चढ़ा सकती है ? अथवा वह भांग या शराब पास में बैठे हुए व्यक्तियों पर अपना कुछ भी प्रभाव दिखला सकती है ? स्पष्ट हैलोटे या बोतल को भांग तथा शराब का नशा नहीं चढ़ता, न ही पास में बैठे हुए व्यक्तियों पर उनका कोई प्रभाव पड़ता है। इसका कारण है - भाँग या शराब तभी नशा चढ़ाती है, जब किसी आत्मचेतना (जीवित जीव-चेतनायुक्त जीव) के साथ उसका सम्पर्क, सम्बन्ध या संग हो । मुर्दे पेट में भाँग या शराब उड़ेल देने पर उस पर उनका कोई नशा नहीं चढ़ता, न ही कोई प्रभाव होता है। आशय यह है कि जब कोई जीवित (चेतनायुक्त) व्यक्ति भांग या शराब पीता है, आत्मचेतना के साथ उनका सम्पर्क संग होता है, तभी जाकर वे नशा चढ़ाती हैं; आदमी उनके नशे में धुत्त होकर उन्मत्त और पागल सा हो जाता है; बड़बड़ाता है। ठीक यही स्थिति कर्मपरमाणुओं या अन्य परमाणुओं की है। अकेले अन्य परमाणुओं या कर्मपरमाणुओं में अपना फल शुभ या अशुभ रूप में या यथोचित रूप में १. कर्मवाद : एक अध्ययन से भावांश ग्रहण पृ. ७५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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