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________________ कर्मों का फलदाता कौन ? २५७ जैसे दर्पण को देखकर मनुष्य अपने चेहरे पर लगे हुए दाग को साफ कर लेता है, वैसे ही परमात्मा को आदर्श मानकर मनुष्य अपनी आत्मा के दागों को धो सकता है। आत्मा पर काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, मत्सर, अज्ञान, अबोध आदि विकारों के दाग लगे हुए हैं, प्रभु के स्मरण एवं कीर्तन से इनका सद्बोध प्राप्त होता है, और व्यक्ति वीतराग परमात्मा से अपनी आत्मा की तुलना करके उन विकारों के कालुष्य को तथा कर्मों के आवरण को दूर करके वीतराग मुक्त परमात्म-पद पाने के लिए प्रेरित होता है । संसारी जीव सविकार है, और परमात्मा निर्विकार है, दोनों में कर्म मलिनता और कर्म रहितता का ही अन्तर है । इस अन्तर को मनुष्य आत्मा और परमात्मा के चिन्तन-मनन और बोध से मिटा सकता है। जैन कर्म विज्ञान बताता है कि परमात्मस्वरूप को प्राप्त करने हेतु सर्वकर्मों का क्षय करने की साधना से तथा आत्म-स्वरूप में रमणता से आत्मशुद्धि एवं आत्मशान्ति स्वतः प्राप्त हो जाती है । " ईश्वर और जीव में अन्तर कर्मों का है जैन दर्शन का यह मन्तव्य है कि ईश्वर और जीव में विषमता का कारण औपाधिक कर्म है। कर्मावरणों के हट जाने पर विषमता टिक नहीं सकती। आशय यह है कि जीव अपने कर्मों से बंधा हुआ है, और ईश्वर उन सब कर्मों से मुक्त हो चुका है। एक विचारक ने ठीक ही कहा है 44 'आत्मा परमात्मा में कर्म ही का भेद है। काट दे र कर्म तो फिर भेद है, ना खेद है ।" अशुद्ध आत्मा संसारी : शुद्ध आत्मा मुक्त परमात्मा जैसे सोने में से मैल निकाल दिया जाए तो सोने के अशुद्ध रहने का कोई कारण नहीं है, वह शुद्ध हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा में से कर्ममल दूर हो जाए तो फिर आत्मा शुद्ध होकर परमात्मा बन जाता है। अशुद्ध आत्मा संसारी है और शुद्ध आत्मा मुक्त परमात्मा है।२ (ग) “धव - थुइ-मंगलेणं नाण-दंसण-चरित्त - बोहिलाभं जणयई । नाण- दंसण-चरित्त बोहिलाभ-संपन्ने यणं जीवे अंतकिरियं कप्प विमाणोववत्तिगं आराहणं आराहेइ ।' - उत्तरा. अ. २९ सू. १४ - नमस्कार महामंत्र - चतुर्विंशतिस्तव पाठ से (घ) "एसो पंच णमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणी, मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं ॥ " (ङ) कित्तिय - वंदिय-महिया जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा, आरुग्ग बोहि लाभं समाहिवरमुत्तमं दितु ॥" १. ज्ञान का अमृत से भावांश ग्रहण, पृ. ७९ २. जैनत्व की झांकी (उपाध्याय अमरमुनि) से, पृ. १६८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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