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२५६ . कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५)
इस दृष्टि से परमपिता परमात्मा वंदनीय, पूजनीय, नमस्करणीय और संस्मरणीय है। इस तीसरे परमात्मरूप में मनुष्य को ही प्रधानता दी गई है। परमात्मा का स्थान केवल ध्येय या लक्ष्य के रूप में ही यहाँ रखा गया है।
कर्मविज्ञान-क्षेत्र में ऐसे परमात्मा की क्या उपयोगिता है?
यहाँ एक प्रश्न होता है-जैनदर्शन के अनुसार जब परमात्मा कुछ कर्ता-धर्ता एवं जगत्-निर्माता नहीं है, और न ही जगत् के जीवों का भाग्य विधाता और कर्म-फलप्रदाता है तथा संसार के किसी भी प्रपंच में उसका हस्तक्षेप नहीं है, और न वह हमारा. कुछ लाभ-नुकसान कर सकता है; तब फिर परमात्मा का भजन-पूजन करने की, उसकी भक्ति-स्तुति करने की तथा उसको वन्दन- नमन एवं उसका स्मरण-कीर्तन करने की क्या आवश्यकता है? कर्मविज्ञान के क्षेत्र में ऐसे परमात्मा की क्या उपयोगिता है ?
परमात्मा की स्तुति-भक्ति आदि से महान् लाभ
जैनकर्मविज्ञान के अनुसार वीतराग जीवन्मुक्त एवं विदेहमुक्त परमात्मा का स्मरण, कीर्तन, गुण-चिन्तन, तथा उनकी स्तुति - भक्ति आदि आत्मशुद्धि, आत्मशान्ति, आत्मसमाधि एवं आत्मविकास के लिए अत्यावश्यक माना गया है। '
उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि चतुर्विंशति अर्हत् (वीतराग) परमात्मा की स्तुति (स्तव) करने से जीव दर्शन (सम्यक्त्व) विशुद्धि प्राप्त कर लेता है। परमेष्ठी तथा परमात्मा के वन्दन से जीव नीच गोत्र कर्म का क्षय करके उच्च गोत्र कर्म का बन्ध कर लेता है तथा अप्रतिहत सौभाग्य को एवं आज्ञाफल को प्राप्त कर लेता है। साथ ही वह दाक्षिण्यभाव (जनता के द्वारा अनुकूल भाव ) भी उपलब्ध कर लेता है। इसी प्रकार वीतराग परमात्मा का स्तव एवं उनकी स्तुति मंगल करने से जीव को सम्यग्ज्ञान-दर्शनचारित्ररूप बोधिलाभ प्राप्त होता है। ज्ञान-दर्शन- चारित्र रूप बोधिलाभ से सम्पन्न जीव अन्तक्रिया (मुक्ति) के योग्य अथवा (कल्पों) वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य आराधना कर लेता है।
आवश्यक सूत्र में बताया गया है कि इन पंचपरमेष्ठी भगवन्तों को नमस्कार करने से समस्त पापकर्मों का प्रणाश होता है। तथा इन वीतराग मुक्त सिद्ध परमात्मा का कीर्तन (गुणानुवाद), वन्दन और पूजन करने से आध्यात्मिक जीवन में स्वस्थता और उत्तम समाधि प्राप्त हो जाती है।"
१.
२.
वही (पं. ज्ञानमुनिजी) से, पृ. ७९
(क) चउवीसत्थएणं दंसण विसोहिं जणय । - उत्तराध्ययन अ.२९ सू. ९
(ख) वंदणएणं नीयागोयं कम्मं खवेइ | उच्चागोयं कम्मं निबंध । सोहग्गं च अपडिहयं आणाफलं
निव्वत्तेइ । दाहिणभावं च णं जणयइ ॥"
- उत्तरा. अ. २९ सू. १0
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