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________________ २३४ कर्म-विज्ञान : भाग - २ : कर्मफल के विविध आयाम (५) "कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं वा समर्थः ईश्वरः । " ईश्वर करने, न करने अथवा अन्यथा करने में समर्थ है। वही अकेला सर्वशक्तिसम्पन्न एवं सर्वतंत्र स्वतंत्र है।' भगवद्गीता में भी इसी आशय का एक श्लोक अंकित है। जिसका भावार्थ है“मेरे द्वारा ही विहित (निश्चित किया हुआ) और इच्छित फलों को मनुष्य पाता है।" इस प्रकार कर्मों का फल ईश्वराधीन होने से फल के लिए उसे ईश्वरेच्छा पर निर्भर रहना पड़ता है। वैदिक संस्कृति के अनुगामियों का अथन है कि कर्म तो जीव करता है, परन्तु कर्मफल का नियन्ता-प्रदाता ईश्वर है। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है“शुभ अरु अशुभ कर्म - अनुहारी । ईस देई फल हृदय विचारी ॥३ अर्थात् जीव के शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार ईश्वर हृदय में विचार कर फल देता है। इस विषय में न्यायदर्शन के आचार्यों का तर्क यह है कि “बहुधा पुरुषकृत (सांसारिक जीव के द्वारा किये हुए कर्म का ) तथारूप फल नहीं दिखाई देता । " जैसेकिसी किसान ने खेत में गेहूँ का बीज बोया, किन्तु वर्षा न होने से, अतिवृष्टि होने से, अथवा टिड्डीदल के द्वारा फसल को नष्ट कर देने से, अथवा अन्य किसी कारण से उसे फसल नहीं मिली, उसका कृषिकर्म (परिश्रम) निष्फल हो गया किन्तु उसके गाँव के ही दूसरे कृषक को अपने परिश्रम (कृषिकर्म) का पूरा लाभ (फल) मिला। “इसलिए कर्म के फल का कारण ईश्वर ही हो सकता है, पुरुष (संसारी जीव) नहीं। " ईश्वर द्वारा कर्मफलप्रदान में चतुर्थ कारण ईश्वर को कर्मफलदाता मानने के पूर्वोक्त तीन कारणों के अतिरिक्त चौथा कारण यह माना जाता है कि कर्म अपने आप में जड़ हैं। उनमें किसी को अच्छा या बुरा फल देने का ज्ञान नहीं है। इसलिए जीव को फल देने वाली ईश्वर नाम की विशिष्ट चैतन्य शक्ति है। 9. कर्मवाद : एक अध्ययन से भावांश ग्रहण लभते च ततः कामान् मयैव विहितान् हि तान् ॥ २. ३. तुलसीकृत रामायण ४. “ईश्वरः कारणम् पुरुषकर्माऽफलस्य दर्शनात् ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only -भगवद्गीता ७/२२ -न्यायदर्शन सू. ४/१ www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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