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________________ सुख-दु:ख, , जीवन-मरण आदि की बागडोर ईश्वर के हाथों में कर्मों का फलदाता कौन ? २३३ निष्कर्ष यह है कि वैदिक संस्कृति की छाया में पलने वाले कतिपय भक्तिमार्गी ऐसे भी आए, जिन्होंने अपने सुख-दुःख की बागडोर ईश्वर के हाथ में सौंप दी। उसी के हाथ में तारने-डुबोने या मारने-जिलाने की सत्ता सौंप दी। उनके अन्धविश्वास और आत्मिक सामर्थ्यहीनता के अनुसार यह माना जाने लगा कि न अपना सुख अपने हाथ में है और न ही अपना दुःख अपने हाथ में है। ईश्वर चाहे तो किसी को सुखी बना सकता है और वह चाहे तो दुःखी कर सकता है। उसकी इच्छा पर निर्भर है कि वह किसी को स्वर्ग में भेज दे, अथवा जबरन नरक में धकेल दे।' वैदिक मान्यता : गर्भ से लेकर मृत्युपर्यन्त सभी कार्य-कलाप ईश्वर प्रेरित वैदिक विद्वानों की यह मान्यता है कि माता के गर्भ में आने से लेकर जीव के जन्म, शैशव, यौवन, प्रौढत्व एवं वृद्धत्व तथा मृत्यु- पर्यन्त शरीर का पालन, पोषण, संवर्द्धन, संरक्षण, विकास या ह्रास वही ( ईश्वर ही) करता है। वही जीव को एक योनि से दूसरी योनि में ले जाता है। उस उस जीव के पूर्वकृत कर्मों के फलानुसार • विविध ऐश्वर्य-सामग्री जुटाना, भोजन-वस्त्र सम्पन्न या विपन्न करना, ज्ञान का विकास या ह्रास करना, भावना में विविधता उत्पन्न करना तथा सुख-दुःख की नाना घटानाओं और कार्यों का सम्पादन करना उसी ईश्वर के हाथ में है। कर्म जीव के हाथ में : फल ईश्वराधीन तात्पर्य यह है कि वैदिक मान्यतानुसार कर्म भले ही जीव करले, परन्तु उसका फल देने वाली दूसरी विशिष्ट चेतन-शक्ति है, जिसका नाम ईश्वर है। वह सर्वज्ञ है, सर्वव्यापक हैं, सर्वशक्तिमान् है, दयालु है और न्यायी है। जीवों के शुभ या अशुभ कर्मों के फल का फैसला उसी के हाथ में है। वह चाहे तो फल दे देता है और न चाहे तो नहीं भी देता! शुभ का अशुभ और अशुभ का शुभ फल देना भी उसकी न्यायकारिता की करामात है। सब कुछ उसकी इच्छा पर निर्भर है। उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। इसीलिए उसके लिए कहा जाता है १. (क) अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयो । ईश्वर-प्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा ॥ (ख) कर्मवाद : एक अध्ययन ( सुरेशमुनि) से भावांश ग्रहण, पृ. ५०-५१ (ग) तुलना करें - " अण्णाणी हु अनाथो अप्पा, तस्स य सुहं च दुक्खं च। सग्गं णिरयं गमणं, सव्वं ईसरकयं होदि ॥" - गोम्मटसार (कर्मकांड) गा. ८८० २. कर्म-मीमांसा (स्व. युवाचार्य श्री मधुकरमुनि) से भावांश ग्रहण पृ. ३९ Jain Education International -महाभारत For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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