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________________ २२४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) और किसलिए किया? वह जगत् के निर्माण, नियंत्रण और व्यवस्था के प्रपंच में क्यों पड़ता है ? वह क्यों अच्छा-बुरा कर्म करने वाले को अच्छा-बुरा फल प्रदान करता है? इसके पीछे उसका क्या प्रयोजन है? ईश्वरकर्तृत्ववादी के समक्ष ये प्रयोजन सम्बन्धी जटिल प्रश्न जब आते हैं, तब उनका यथार्थ सन्तोषजनक समाधान नहीं मिलता। यदि वे यह कहें कि करुणा से प्रेरित होकर ईश्वर ऐसा करता है; अतः करुणा उसका प्रयोजन थी। अर्थात् ईश्वर के अन्तर् में करुणा जागी और उसने सृष्टि का सृजन किया। तब प्रतिप्रश्न होता है-यह . (करुणात्मक) प्रयोजन कब पैदा हुआ? यदि कहें कि जिस दिन ईश्वर का जन्म हुआ, उसी दिन करुणा नामक प्रयोजन पैदा हुआ, तब इसका अर्थ यह होगा कि ईश्वर और जगत् का जन्म एक साथ हुआ। यदि ईश्वर पहले से ही था, और प्रयोजन बाद में कभी पैदा हुआ, तब प्रश्न होगा-प्रयोजन बाद में क्यों पैदा हुआ, पहले क्यों नहीं? इन प्रश्नों का सिद्धान्त और युक्ति से संगत कोई समाधान नहीं मिलता। ईश्वर द्वारा करुणा से प्रेरित होकर सृष्टिकर्तृत्व भी प्रत्यक्ष असिद्ध ईश्वर का सृष्टि-कर्तृत्व करुणात्मक प्रयोजन से हुआ है, यह भी तर्कसंगत नहीं है। वर्तमान सृष्टि में जहाँ इतनी हत्या, दंगा, आतंक, धोखेबाजी, छल-फरेब आदि क्रूरताएं प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रही हैं वहाँ ईश्वर की करुणा की बात समझ में नहीं आती। दूसरे भी जितने प्रयोजन सष्टिकर्तत्व तथा जगत के जीवों को कर्मफल प्रदातत्व के सम्बन्ध में प्रस्तुत किये जाते हैं, उनकी भी कोई युक्तिसंगत व्याख्या प्रस्तुत नहीं की जाती। इन समग्र दार्शनिक दृष्टिबिन्दुओं के आधार से जैनदर्शन ने ईश्वर के द्वारा सृष्टिकर्तृत्व और कर्मफल-प्रदातृत्व के तथ्य से इन्कार कर दिया।' उपनिषद् में ईश्वर के जगत्-कर्तृत्व के पीछे यह तर्क प्रस्तुत किया गया है-- "एकोऽहं बहुस्याम्'-मैं अकेला हूँ, बहुत हो जाऊँ, इस प्रकार ईश्वर ने अपने एकाकीपन को दूर करने के लिए अनेकसंख्यात्मक जगत् का निर्माण किया। यह कल्पना भी ईश्वर जैसे सर्वशक्तिमान् और समर्थ के लिए युक्तिसंगत और उचित नहीं प्रतीत होती। यह हुआ दार्शनिक दृष्टिकोण से ईश्वरकर्तृत्ववाद एवं ईश्वर द्वारा कर्मफल प्रदातृत्ववाद का निराकरण! १. जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण , पृ. १०५-१०६. २. एकोऽहं बहुस्याम्।' -उपनिषद् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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