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कर्म का कर्ता कौन, फलभोक्ता कौन ? २२३
(ज्ञानप्रद्वेष, ज्ञान-निन्हव आदि विशिष्ट कारणों से उत्तरोत्तर रागादि तीव्र या मन्द परिणाम भी) कर्मबन्धन बद्ध जीव के होता है, कर्मबन्धनमुक्त जीव के नहीं। अतः कर्मबन्धन-बद्ध जीव ही कर्म का कर्ता है, निष्पन्नकर्ता है और परिणमनकर्ता है।'
इस सम्बन्ध में नैयायिक वैशेषिकों द्वारा यह शंका प्रस्तुत की जाती है कि (सांसारिक) जीव अज्ञ है। उसे अपने सुख-दुःख का भान नहीं है। इसलिए वह कर्म करने और फल भोगने में स्वतन्त्र नहीं है। ईश्वर या कोई अदृश्य शक्ति उससे जैसा चाहती है, वैसा कर्म कराती है, और फल भी वही भुगवाती है। परन्तु जैन दर्शन इस मान्यता को युक्ति, सूक्ति और अनुभूति के विरुद्ध मानता है। इस सम्बन्ध में “कर्मवाद पर प्रहार और परिहार' नामक निबन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। फिर भी यहाँ उसके सम्बन्ध में किंचित् विचार कर लेना आवश्यक है। ईश्वर कर्मफल प्रदाता नहीं है : क्यों और कैसे? . ईश्वर-कर्तृत्ववादियों द्वारा यह तर्क भी प्रस्तुत किया जाता है कि चोरी, डकैती, आदि अपराध करने वाला व्यक्ति स्वयं उस-उस अपराध का फल भोगना नहीं चाहता; न्यायाधीश या दण्डनायक दण्डित करके उसे उसके अपराध का फल भुगवाता है। वैसे ही जगत् के सभी जीवों को उनके अच्छे और बुरे कर्म का फल देने (भुगवाने) वाला भी कोई अन्य होना चाहिए। इस दृष्टि से कुछ दार्शनिकों और धर्म-सम्प्रदायों ने ईश्वर को फलदाता के रूप में स्वीकार किया है। जबकि जैनकर्म-विज्ञान इस मन्तव्य को स्वीकार नहीं करता। जैनकर्म-विज्ञान का मन्तव्य है कि कर्म करने और उसका फल भोगने की शक्ति स्वयं जीव में निहित है। उसे वह शक्ति कहीं बाहर से लाने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा (जीव) में अपना स्वयं का कर्तृत्व और स्वयं का ही भोक्तृत्व विद्यमान है। ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किस.प्रयोजन से किया : एक अनुत्तरित प्रश्न ___ एक और प्रश्न है-ईश्वर के द्वारा सृष्टि के कर्तृत्व एवं जगत् के जीवों को अच्छे बुरे फल-प्रदातृत्व के सम्बन्ध में। वह यह है कि ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण क्यों
१. (क) प्रज्ञापनासूत्र खण्ड ३ पद २३ उ. १ का मूल पाठ सू. १६७९ तथा पदों के विशेषार्थ
(आ. प्र. समिति, ब्यावर) पृ. १९ (ख) जीवस्तु कर्मबन्धनबद्धो भगवतो वीरस्य (मते) कर्ता।
सन्तत्यनाद्यं च तदिष्ट कर्मात्मनः कर्तुः॥ -प्रज्ञापना पद २३ में उद्धृत २. (क) अज्ञो जन्तुरमीशोऽयआत्मनः सुखदुःखयो।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग या श्वभ्रमेव वा॥ (ख) अण्णाणी हु अनाथो अप्पा। तस्स य सुहं च दुक्खं च। ‘सग्गं णिरयं गमणं सव्वं ईसरकयं होदि।
. -गोम्मटसार ८८0
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