SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मवाद : निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? १७७ दूसरा जन्म ग्रहण करने तक जो कर्म रहते हैं, वे जनक कर्म सत्तावस्थित कर्म के तल्य हैं, दूसरे कर्म का फल देने में सहायक उपस्थम्भक कर्म की तुलना उत्कर्षण से, दूसरे कर्मों की शक्ति को क्षीण करने में सहायक उपपीलक कर्म की तुलना अपकर्षण से की जा सकती है। दूसरे कर्म का विपाक रोक कर अपना फल देने वाले उपघातक कर्म की तुलना 'उपशमन' से की जा सकती है।' इसके अतिरिक्त विभिन्न पहलुओं से कर्म विज्ञान सम्बन्धी विस्तृत चर्चा कर्मग्रन्थ, षट्खण्डागम (महाकर्म प्रकृति प्राभृत), लब्धिसार, पंचसंग्रह (संस्कृत, प्राकृत), कर्मप्रकृति, गोम्मटसार, महाबंधो, कसायपाहुड, धवला, बंध विहाणे आदि विभिन्न ग्रन्थों तथा आगमों में यत्र तत्र की गई है।२ । इस पर से निःसन्देह कहा जा सकता है कि जैन कर्मवाद आत्मवाद, परमात्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद, क्रियावाद तथा सत्पुरुषार्थ- वाद आदि कर्म से सम्बद्ध सभी पहलुओं पर प्रकाश डालने वाला आशावादी सिद्धान्त है। वह अन्य शक्तियों से वरदान मांग कर अपने आपको परमुखापेक्षी एवं स्वपुरुषार्थविघात करने वाली विद्या नहीं है। वह अपने में सोयी हुई अनन्तज्ञानादि चतुष्टय सम्पदा को स्व-पुरुषार्थ द्वारा अभिव्यक्त करने की कला सिखाने वाला मंगलमय सिद्धान्त है। १. (क) बौद्ध दर्शन (नरेन्द्रदेव) पृ. २५0, २६७, २७५ (ख) अभिधर्मकोश भाष्य पृ.१२०, ४.५० (ग) जैन कर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन) पृ. २७ २. कर्म की पूर्वोक्त १० या ११ अवस्थाओं के विस्तृत वर्णन के जिज्ञासु पाठक कर्मग्रन्य, पंचसंग्रह ... (प्राकृत) गोम्मटसार आदि ग्रन्थ देखें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy