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१७६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४)
अबाधाकाल को जानने का उपाय यह है कि जिस कर्म की स्थिति जितने सागरोपम की है, उसका अबाधाकाल उतने ही सौ वर्ष का होता है। जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म की स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम की है तो उसका अबाधाकाल तीस सौ (तीन हजार) वर्ष का
हुआ।
जैन कर्म विज्ञानोक्त दस अवस्थाओं की अन्य परम्पराओं से तुलना
जैनकर्मविज्ञान से सम्बन्धित साहित्य में कर्मों की प्रकृतियों, इनकी स्थितियों, (काल-मर्यादाओं), इनकी काषायिक तीव्रता-मन्दता की अवस्थाओं तथा इनके प्रदेशों का, तथा इनमें जातिगत, स्थिति (कालमर्यादा) गत, अनुभागगत और प्रदेशगत परिवर्तनों-न्यूनाधिकताओं की अवस्थाओं एवं प्रक्रियाओं पर जितना विशद रूप से प्रकाश डाला गया है, उतना अन्य परम्पराओं के दार्शनिक साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता। अन्य परम्परा में 'उदय' के लिए 'प्रारब्ध' शब्द, सत्ता के लिए संचित और बन्ध (या बन्धन) के लिए आगामी या क्रियमाण शब्द प्रयुक्त किया जाता है।
योगदर्शन में नियतविपाकी, अनियतविपाकी और आवापगमन के रूप में कर्म की त्रिविध दशा का उल्लेख मिलता है। नियत समय पर अपना फल देकर नष्ट हो जाने वाले नियतविपाकी कर्म की तुलना कर्म की निकाचित अवस्था से, तथा फल दिये बिना ही आत्मा से पृथक हो जाने वाले (अनियतविपाकी) कर्म की प्रदेशोदय से, एवं एक कर्म के दूसरे में मिल जाने वाले 'आवापगमन कर्म' की तुलना कर्म की संक्रमण अवस्था से की जा सकती है। ___ बौद्ध परम्परा में कर्म की विभिन्न अवस्थाओं से सम्बन्धित मुख्य ७ कर्म माने गए हैं-(१) जनक, (२) उपस्थम्भक, (३) उपपीलक, (४) उपघातक, (५) सातिक्रमण, (६) अनियत (वेदनीय) कर्म एवं (७) नियत (वेदनीय) कर्म। अनियत वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-नियतविपाक और अनियतविपाक। नियतविपाक की तुलना निकाचित कर्म से की जा सकती है। जिनका विपाक काल अनियत हो, किन्तु विपाक नियत हो, उन्हें नियतविपाक कहते हैं। किन्तु जो कर्म अपना फल देगा ही, यह नियत नहीं है, वह अनियतविपाक है। नियत वेदनीय कर्म के तीन भेद हैं--दृष्टधर्म-वेदनीय, उपपद्यवेदनीय (आनन्तर्यकर्म) और अपरपर्यायवेदनीय। सातिक्रमण को ही जैन कर्मविज्ञान संक्रमण कहता है। यह विपच्यमान कर्मों का ही हो सकता है, किन्तु फलभोग अनिवार्य है।
१. (क) धर्म और दर्शन (उपाचार्य देवेन्द्र मुनि) पृ. ९८
(ख) भगवती २/३ . २. धर्म और दर्शन (उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) पृ. ९९
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