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________________ कर्मवाद ः निराशावाद या पुरुषार्थयुक्त आशावाद ? १५९ परिचायक है। चन्दनबाला जैसी सुकुमार राजकुमारी का दासी के रूप में बिकना और गुलाम बनकर रहना तथा अनेक कष्ट उठाना भी कर्म के अटल नियम का सूचक है। सुभद्रा जैसी सती के सिर पर मिथ्या कलंक का आना, तथा मदनरेखा, अंजना, आदि सतियों पर घोर कष्ट और वन-वन में निराश्रित भटकना भी कर्म के प्रभाव को अभिव्यक्त करता है। इस प्रकार कर्म का प्रभाव विश्व में, समस्त प्राणियों पर सर्व कालव्यापी एवं सार्वत्रिक है। कर्म के प्रभाव से राजा रंक और रंक राजा बन जाता है। एक व्यक्ति कर्म के प्रभाव से अभावपीड़ित जिंदगी व्यतीत करता है, दूसरा व्यक्ति पानी मांगता है तो उसे दूध मिलता है। कर्म के प्रभाव से मनुष्य मरकर पशु-पक्षी, नारक या देव चाहे जिस योनि में जन्म लेता है। कर्म के प्रभाव से श्रेष्ठिपुत्र होते हुए भी एक व्यक्ति सारी जिंदगी रोग, शोक, चिन्ता और व्यथा में बिताता है, जबकि दूसरा बीमार एवं गरीब पिता का पुत्र होते हुए भी विद्यावान्, बुद्धिमान, स्वस्थ और सौन्दर्यमूर्ति होता है। भगवान् महावीर जैसे महापुरुष के कानों में कीले ठोके गए, अनार्य देश में उन्हें बहुत कष्ट सहना पड़ा, यह भी कर्म का अद्भुत प्रभाव है। यह कर्म की ही महिमा है कि शालिभद्र को धनकुबेर गोभद्रसेठ के यहाँ जन्म मिला, सुख-वैभव के सभी साधन प्राप्त हुए। वह संसार में जो कुछ विचित्रता, विभिन्नता एवं विविधता दृष्टिगोचर हो रही है, सब कर्मजनित है। “कर्मों के स्रोत छहों दिशाओं में, जड़-चेतनरूप विश्व में सर्वत्र हैं।” दुनिया के प्रत्येक प्राणी का अनन्तकालीन जीवन कर्मसूत्र से ग्रथित है। कर्म के आगे किसी मनुष्य की, उसके धन की, सत्ता की सिफारिश की कुछ भी नहीं चलती । ' कर्म की शक्ति के विषय में इस प्रकार की महिमापूर्ण बातों से प्रभावित होकर सामान्य मानव अपने आपको विवश, अशक्त, दीन-हीन, परावलम्बी एवं कर्माधीन समझने लगता है और प्रायः ऐसी धारणा बना लेता है, कि कर्म जैसा करायेगा, वैसा करना होगा। जैसा कर्म का लेख है, वैसा ही होगा। उसमें रत्तीभर भी परिवर्तन की गुंजाइश नहीं है। इस प्रकार कर्मवाद के विषय में भ्रान्ति का शिकार होकर वह निराश, हताश, निश्चेष्ट एवं पुरुषार्थहीन होकर बैठ जाता है। आज मनुष्य के पुरुषार्थ ने क्षयरोग, मलेरिया, प्लेग, चेचक जैसे भयंकर रोगों पर विजय पा ली है। चेचक को दैवी प्रकोप तथा अन्य रोगों को कर्मजन्य माना जाता था। आज रोगों की बहुत ही रोकथाम हो चुकी है। यदि रोग कर्मजन्य होते तो वे नेस्तनाबूद १. (क) जैनदृष्टिए कर्म (डॉ. मोतीचंद गि. कापडिया ) पृ. २१/२२ (ख) आचारांग श्रु. १ अ. ५ उ. ६ सू. ५८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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