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________________ कर्मसिद्धान्त की त्रिकालोपयोगिता १०५ अतीत की भूलों एवं गलतियों को न दोहराने और उनके परिमार्जन के लिए प्रायश्चित्त करके उनकी पुनः स्मृति का परित्याग करना ही वर्तमान को पकड़ने का प्रमुख उपाय है। वर्तमान में जीने का अभ्यास करना, अतीत की पकड़ से छूटने का उपाय परन्तु देखा यह जाता है कि मनुष्य अतीत को छोड़ नहीं पाता । जैसे शरीर की छाया मानव के साथ-साथ चलती है, वैसे ही अतीत की काली छाया भी उसके साथ-साथ चलती रहती है। शरीर की छाया को तो मनुष्य देख पाता है, परन्तु अतीत की छाया अदृश्य- अव्यक्त है, फिर भी साथ में सतत बनी रहती है । अतीत की अपाययुक्त उस काली छाया से मुक्त होने का उपाय है- वर्तमान में जीने का अभ्यास करना। यही कर्मविज्ञान का सन्देश है। आज का प्रमादी मानव वर्तमान में रहता-सहता है, वर्तमान में श्वास लेता है, सब कुछ वर्तमान में करता है, परन्तु यथार्थ रूप से वर्तमान में नहीं जीता। वर्तमान में जीने की कला उसी व्यक्ति को हस्तगत होती है, जो अप्रमत्त होता है, प्रतिपल जागरूक और सावधान होता हैं। जो अप्रमादी होता है, वह वर्तमान क्षण का चिन्तन-मनन- अनुभव करता है। वह प्रवृत्तियाँ करता हुआ भी, उन प्रवृत्तियों के साथ रागद्वेषादि विकारों को नहीं जोड़ता । वह केवल ज्ञाता-द्रष्टा या गीता की भाषा में “साक्षी चेता और केवल निर्गुण बना रहता है।” इस कारण वर्तमान क्षण राग-द्वेष- मुक्त क्षण अथवा कर्मबन्ध अथवा कर्मसंयोग से मुक्त क्षण बन जाता है। ऐसा ज्ञाता द्रष्टा, अप्रमत्त जागरूक साधक कर्म से अतीत रहता है, वह अतीत की स्मृति और अनागत की कल्पना से परे हो जाता है ।" प्रतिक्रमण आदि की चेतना जागृत होने पर वर्तमान में स्थिरता सुदृढ़ जिस व्यक्ति में प्रतिक्रमण, सम्प्रेक्षण, प्रायश्चित्त तथा ज्ञाता-द्रष्टा भाव में रहने की चेतना जाग जाती है, वह व्यक्ति अतीत की पकड़ से सर्वथा मुक्त हो सकता है। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति अनुकूल या प्रतिकूल परीषहों के आने पर भी निश्चल और अपने आत्मभावों में स्थिर रहता है। कर्मसिद्धान्त के अनुसार ऐसा सत्पुरुषार्थशील व्यक्ति १. (क) कर्मवाद भावांश पृ. १४४ तथा १६६ (ख) साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च .......... नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम् । अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत सात्विकमुच्यते । २. (क) “सहिओ दुक्खमत्ताए पुट्ठो नो झंझाए।" (ख) लाभुत्ति न मज्जिज्जा, अलाभुत्ति न सोईजा ॥ · (ग) सुमणे अहियासेज्जा न य कोलाहलं करे।” Jain Education International For Personal & Private Use Only -भगवद्गीता १८ अ. - गीता १८/२३ -आचारांग १/३/३ - आचारांग १/१/५ -सूत्रकृतांग १/९/३१ www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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