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________________ कर्मसिद्धान्त की त्रिकालोपयोगिता १०३ महत्त्वपूर्ण भविष्य भी होता है। काल की अखण्डता को लेकर भी कर्म-मुक्ति का साधक अपने कर्म के द्वारा समुत्पन्न अतीत, वर्तमान और अनागत अवस्थाओं को यथार्थ रूप में समझ सकता है। कर्मविज्ञान के शब्दों में, वह कार्य-कारण या प्रवृत्ति और परिणाम को ठीक ढंग से जान सकता है।' विरोधाभास का समाधान : अतीत, अनागत के पंखों को काट डाले इन दोनों विरोधाभास जैसे तथ्यों का निष्कर्ष यह है कि मानव अपनी वर्तमान स्थिति का ठीक तरह से जायजा लेने के लिए अतीत को भी देखे और भविष्य का भी विचार करे। किन्तु एक बार यह निश्चित हो जाने पर कि इस प्रकार की त्रैकालिक स्थिति है; तब वह वर्तमान क्षण में जीने का ही अभ्यास करे। वह भूतकालीन पंखों को भी काट डाले और भविष्यकालीन पंखों को भी, केवल वर्तमान में स्थिर रहे । भूतकाल की स्मृतियों को न ढोए और न ही भविष्यकालीन मधुर सुखैषी कल्पनाओं को संजोए । वर्तमान में स्थिर रहने के तीन महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय उपाय इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में छद्मस्थ अथवा प्रमत्त साधक के लिए एक ओर ‘जयं चरे, जयं चिट्ठे' आदि सूत्र देकर वर्तमान में यतनापूर्वक रहने - जीने का अभ्यास करने का संकेत है, वहाँ दूसरी ओर उसके लिए प्रतिदिन दैवसिक एवं रात्रिक प्रतिक्रमण करने का भी विधान है, ताकि वह प्रवृत्ति - निवृत्ति (समिति गुप्ति या महाव्रत-यम-नियम आदि ) की साधना में जहाँ कहीं अतिक्रमण (अतिचार - दोष) हुआ हो, या भूल हुई हो वहाँ उसका परिमार्जन करले । इसके उपरान्त भी साधना में यदि कोई स्खलना, प्रमाद या त्रुटि रह गई हो तो उसके लिए भी पूर्वरात्रि और अपररात्रि के सन्धिकाल में स्वयं आत्मसम्प्रेक्षण करे कि मेरे लिए कौन सा कार्य या प्रवृत्ति कृत्य - करणीय है, कौन सा कृत्य करने से शेष रह गया और कौन सा मेरे द्वारा ऐसा शक्य कार्य था, जिसे मैंने नहीं किया या नहीं कर रहा हूँ ?” २ १. कर्मवाद से भावांश पृ. २०-२१ २. (क) जयं चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए । यं भुञ्जन्तो भासन्तो पावकम्मं न बंधई ॥ (ख) आवश्यक सूत्र में देखें । (ग) जो पुव्वरत्तावरत्तकाले संपिक्खए अप्पगमप्पएणं। किं मे कडं, किं च मे किच्च सेसं, किं सक्कणिज्जं न समायरामि ?" किं मे परो पासइ, किं च अप्पा, किं वा खलिअं न विवज्जयामि । इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो अणागयं नो पडिबंध कुज्जा ॥ Jain Education International - दशवैकालिक द्वितीय चूलिका गा. १२-१३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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