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कर्मसिद्धान्त की त्रिकालोपयोगिता ९९
मेघमनि को इस वर्तमान बोध से अतीत की स्मति ताजी हो गई। उसके सामने अतीत में किये हुए सत्कर्म चलचित्रवत् प्रत्यक्ष हो गए। वर्तमान में कुविचारों के द्वारा संयम का जो अतिक्रमण हो गया था, उसे पुनः अतीत के प्रतिक्रमण द्वारा मेघमुनि ने ठीक कर लिया। वे पुनः आत्मस्थ -स्वस्थ हो गए और भविष्य को उज्ज्वल बनाने हेतु उन्होंने भगवान से प्रत्याख्यान भी ग्रहण कर लिया कि आज से केवल दो नेत्रों के सिवाय मेरे शरीर के सभी अंग आपके चरणों में समर्पित करता हूँ। इन्हें उत्पथ में ले जाने का त्याग (प्रत्याख्यान) करता हूँ। अतीत का प्रतिक्रमण, वर्तमान में संवर एवं भविष्य का प्रत्यख्यान करो
षड्-आवश्यक-साधना (प्रतिक्रमण) के समय यह पाठ दोहराया जाता है- “मै भूतकाल का प्रतिक्रमण करता हूँ, वर्तमान काल में संवर (संयम तथा सामायिक) करता | और भविष्य (अनागत) काल का प्रत्याख्यान करता हूँ। ये तीनों कर्मसिद्धान्त को ध्यान में रखकर अशुभ योग की निवृत्ति के लिए किये जाते हैं। क्योंकि व्यक्ति के वर्तमान जीवन-दर्पण पर पहले उसके द्वारा किये हुए अतीत के शुभ-अशुभ कर्म ही प्रतिबिम्बित होते हैं।
कर्मसिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में जिसने अतीत का प्रतिक्रमण एवं भविष्य का प्रत्याख्यान कर लिया, उसके वर्तमान क्षण में स्वतः ही संवर (आनव-निरोध) हो जाएगा। पंचेन्द्रिय-संयम, मनःसंयम तथा प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा-संयम एवं यम-नियम-व्रतत्याग, प्रत्याख्यान आदि सब चरित्रीय अंग संवर के अन्तर्गत हैं। वर्तमान अतीत से सम्बद्ध तथा भविष्य से अनुस्यूत
यह तो निश्चित है कि जीवन का सत्य अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों से परस्पर अनुस्यूत है, पर यह कालत्रयी अनुस्यूत है-कर्मसिद्धान्त के माध्यम से। कोई भी
१. ज्ञाताधर्मकथा, अ.१ १. (क) अईयं पडिक्कमामि, पच्चुप्पन्न संवरेमि, अणागयं पच्चक्खामि। -आवश्यकनियुक्ति
(ख) तिण्हमतिक्कमाणं आलोएज्जा, पडिक्कमेज्जा, शिंदेज्जा, गरहेज्जा, विउद्देज्जा, - विसोहेज्जा, अकरणयाए अब्भुटेज् ना, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जेज्जा, तं जहा
णाणातिक्कमस्स, दंसणातिक्कमस्स, चरित्तातिक्कमस्स। -स्थानां अ.३ उ. ४ पृ. ४४४ ३. प्रतिक्रमण शब्दो हि अत्राशुभयोग निवृत्ति मात्रार्थः समान्यतया परिगृह्यते। तथा च सत्यतीत विषय
प्रतिक्रमण निन्दा (पश्चात्ताप) द्वारेण अशुभयोग निवृत्तिरेवेति। प्रत्युत्पत्रविषयमपि संवरद्वारेण अशुभयोगनिवृत्तिरेव। अनागतविषयमपि प्रत्याख्यान-द्वारेण अशुभयोग निवृत्तिरेवेति न दोषः॥
-आचार्य हरिभद्र
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