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________________ (19) खण्ड "कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यावलोचन" में प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान युग तक की कर्मवाद की विकास यात्रा का बहुआयामी वर्णन हुआ है। तृतीय खण्ड मैं कर्म के विराट स्वरूप का दिग्दर्शन है। प्रस्तुत द्वितीय भाग के अन्तर्गत दो खण्ड है । (१) चतुर्थ खण्ड एवं (२) पंचम खण्ड | १ - चतुर्थ खण्ड में कर्मविज्ञान अथवा कर्मों की उपयोगिता, महत्ता और विशेषताओं का विवेचन है। कर्म विज्ञान अथवा कर्मों का ज्ञान आध्यात्मिक, व्यावहारिक, सामाजिक, नैतिक आदि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में किस प्रकार और कितना उपयोगी है, इसका समीचीन दिग्दर्शन कराने का प्रयास किया गया है। यह तो निश्चित है कि प्रत्येक व्यक्ति उन्नति एवं सुख ही चाहता है, अवनति और दुःख कोई नहीं चाहता। लेकिन जब तक उसे यह ज्ञात न हो कि किस प्रकार के कर्मों से, किस प्रकार की क्रिया और प्रवृत्ति से उन्नति होगी, सुख मिलेगा, कल्याण होगा, तब तक वह उपयोगी क्रिया नहीं कर पाता। कर्म एवं कर्मफल के सम्यग् ज्ञान के अभाव में उन्नति एवं सुख की कामना सिर्फ एक सपना मात्र बनकर रह जाती है। इस खण्ड में विविध उदाहरणों, रूपकों तथा सैद्धान्तिक और व्यावहारिक विवेचना से यह स्पष्ट किया गया है कि कर्मशास्त्र का ज्ञान किस प्रकार मानव की सर्वांगपूर्ण उन्नति में उपयोगी हो सकता है। आध्यात्मिक अथवा आत्मिक उन्नति के कौन-कौन से सोपान हैं ? व्यक्ति किस प्रकार की क्रिया करे कि उसका व्यावहारिक जीवन सुखी हो; वह समाज, राष्ट्र और मानवता के लिए उपयोगी बन सके और अपने जीवन की कृतकृत्यता अनुभव कर सके। नैतिकता का धार्मिकत से अटूट सम्बन्ध है। नैतिक व्यक्ति ही धार्मिक, व्यवहारकुशल और समाजोपयोगी होता है। नैतिक आदर्शों का मूल आधार कर्म सिद्धान्त ही है। कर्मवाद के साथ समाजवाद की तुलना करके इन दोनों की संगति और विसंगति का भी उचित मूल्यांकन किया गया है। कर्मवाद को कुछ लोग भाग्यवाद मानकर यह आक्षेप करते हैं कि कर्मवाद मानव को निराशावादी तथा आलसी प्रमादी और कल्पना- जीवी बनाता है, उसे पुरुषार्थहीन कर देता है, वह सोच लेता है - जैसा कर्म में (भाग्य में) लिखा होगा, वैसा ही होगा, फिर पुरुषार्थ से क्या लाभ ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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