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८८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) सामूहिक कर्म, हिंसा और पाप कर्मबन्ध की शंका ___परन्तु कर्मविज्ञान के तादात्म्य और ताटस्थ्य के रहस्य को न समझने वाले व्यक्ति ऐसा भ्रान्तिमूलक प्रश्न उठाते हैं कि-"जल में भी जीव है, स्थल में भी जीव है, पर्वत पर भी जीव है, समस्त लोक जीव-जन्तुओं से व्याप्त है। ऐसी स्थिति में कोई भी साधक या मानव समूह कैसे अहिंसक तथा पाप कर्मबन्ध से मुक्त रह सकता है ?"
इसी का विश्लेषण करते हुए डॉ महावीर सरन जैन लिखते हैं- हमें कर्म तो करने ही पड़ेंगे। शरीर है तो क्रिया भी होगी। क्रिया होगी तो कर्मवर्गणा के परमाणु आत्म-प्रदेश की ओर आकृष्ट होंगे ही। ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति कैसे जीवित रह सकता है। मार्ग में चलते हुए अनजाने यदि कोई जीव आहत हो जाए तो क्या वह हिंसा हो जाएगी? तो क्या हम अकर्मण्य हो जाएं ? क्रिया करना बंद करदें ? ऐसी स्थिति में सामाजिक-जीवन या समाज का कार्य कैसे चल सकता है ? खेती कैसे होगी? वस्तुओं का उत्पादन कैसे होगा? क्या कर्महीन स्थिति में कोई व्यक्ति जिन्दा रह सकता है ?"" तीन प्रकार से समाधान
भगवान् महावीर ने उपर्युक्त शंका का समाधान तीन तरह से दिया है। प्रथम समाधान आचारांग सूत्र में दिया है-कर्म (कार्य) का पहले भलीभांति परिप्रेक्षण करो कि वह कर्म उत्कट राग-द्वेष एवं कषायवर्द्धक तो नहीं है ? क्यों कि "कर्म का मूल क्षण-हिंसा है। अर्थात् मन में किसी भी प्राणी के प्रति तीव्र राग या द्वेष, अथवा तीव्र कषाय तो नहीं है ? हिंसा यानी भावहिंसा राग-द्वेषादि विकारों के तीव्र रूप से प्रादुर्भाव से होती है। यदि तीव्र रागादि का प्रादुर्भाव नहीं है तो वहाँ हिंसा नहीं होती। ___ यही बात धवला में कही गई है-यदि कर्म करने वाला प्रमादहीन है, तो वह अहिंसक है और प्रमादयुक्त है तो सदैव हिंसाकर्ता है। ___ दशवैकालिक सूत्र में 'जयं चरे' का मूल मंत्र इसी तथ्य को उजागर करता है। यदि व्यक्ति सावधान (अप्रमत्त) एवं ज्ञाता-द्रष्टा होकर एवं अलिप्त-अनासक्त होकर कोई भी कार्य करता है तो वहाँ भावहिंसा नहीं होगी, द्रव्यहिंसा कदाचित् हो सकती है, परन्तु उससे भावकर्म का बन्ध नहीं होगा।
१. (क) जले जन्तुः स्थले जन्तुः जन्तुः पर्वतमस्तके।
जन्तुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिंसकः? -राजवार्तिक में उद्धृत ७/१३ (ख) जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'कर्म का सामाजिक सन्दर्भ' लेख में उठाई गई
चर्चा, पृ. २८७
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