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६२ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१)
इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले जन्म की विशेषताओं एवं संस्कारों की प्राप्ति दूसरे जन्म में होती है। जन्म के साथ दिखाई पड़ने वाली आकस्मिक विशेषताओं का कारण पूर्वजन्म के कर्म होते हैं। उसका प्रमाण गीता के अगले श्लोक में अंकित है- "वह अपने पूर्वजन्म के बौद्धिक संयोगों तथा संस्कारों को प्राप्त करके पुनः मोक्षसिद्धि के लिये प्रयत्न करता है।" दुष्कर्मों के फलस्वरूप अगले जन्म में प्राणी निम्नगति और योनि को पाता है, इसके लिए गीता कहती है-"निकृष्ट कर्म करने वाले क्रूर, द्वेषी और दुष्ट नराधमों को निरन्तर आसुरी योनियों में फैकता रहता हूँ।"२ ____ जो लोग भौतिक शरीर की मृत्यु के साथ ही जीवन की इतिश्री समझ लेते हैं, उन्हें पौर्वात्य और पाश्चात्य दार्शनिकों, धर्मशास्त्रियों, स्मृतिकारों, आगमकारों और विचारकों ने तर्कों, प्रमाणों, युक्तियों, प्रयोगों और अनुभवों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि पुनर्जन्म का सिद्धान्त काल्पनिक उड़ान नहीं है। विभिन्न दर्शनों और धर्मग्रन्थों में कर्म और पुनर्जन्म का निरूपण
ऋग्वेद में कर्म और पुनर्जन्म का संकेत-'ऋग्वेद' वैदिक साहित्य में सबसे प्राचीन धर्मशास्त्र माना जाता है। उसकी एक ऋचा में बताया गया है कि "मृत मनुष्य की आँख सूर्य के पास और आत्मा वायु के पास जाती है, तथा यह आत्मा अपने धर्म (अर्थात् कम) के अनुसार पृथ्वी में, स्वर्ग में, जल में और वनस्पति में जाती है। इस प्रकार कर्म और पुनर्जन्म के सम्बन्ध का सर्वाधिक प्राचीन संकेत प्राप्त होता है।
उपनिषदों में कर्म और पुनर्जन्म का उल्लेख-कठोपनिषद्' में नचिकेता के उद्गार हैं-"जैसे अन्नकण पकते हैं और विनष्ट हो जाते हैं, फिर वे पुनः उत्पन्न होते हैं, वैसे ही मनुष्य भी जीता है, मरता है और पुनः जन्म लेता है।"
__ वृहदारण्यक उपनिषद् में स्पष्ट कहा है-५ "मृत्युकाल में आत्मा नेत्र, मस्तिष्क अथवा अन्य शरीर-प्रदेश में से उत्क्रमण करती है। उस समय
- गीता अ. ६ श्लोक ४३
१. "तत्र तं. बुद्धि-संयोग, लभते पौर्वदेहिकम् ।
यत ते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन !" २. "तानह द्विषतः क्रूरान् संसारेषु नराधमान् ।
क्षिपाम्यजसमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ।। ३. ऋग्वेद १०/१६/३ ४. कठोपनिषद् १/१/५-६ ५. वृहदारण्यक उपनिषद् ४/४/१-२
-गीता अ. १६ श्लो. १९
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