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कर्म-अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म-२ ६१
कर्म-अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म-२
पुनर्जन्म को माने बिना वर्तमान जीवन की यथार्थ व्याख्या सम्भव नहीं
जीवन का जो स्वरूप वर्तमान में दिखाई पड़ रहा है, वह उतने ही तक सीमित नहीं है; अपितु उसका सम्बन्ध अनन्त भूतकाल और अनन्त भविष्य के साथ जुड़ा हुआ है। वर्तमान जीवन तो उस अनन्त श्रृंखला की एक कड़ी है। भारत के जितने भी आस्तिक दर्शन हैं, वे सब पुनर्जन्म और पूर्वजन्म की विशद चर्चा करते हैं। पुनर्जन्म और पूर्वजन्म को माने बिना वर्तमान जीवन की यथार्थ व्याख्या नहीं हो सकती। पुनर्जन्म और पूर्वजन्म को न मामा जाए तो इस जन्म और पिछले जन्मों में किये हुए शुभ-अशुभ कर्मों के फल की व्याख्या भी नहीं हो सकती।' प्रत्यक्षज्ञानियों और भारतीय मनीषियों द्वारा पुनर्जन्म की सिद्धि . प्रत्यक्षज्ञानियों ने तो पुनर्जन्म और पर्वजन्म के विषय में स्पष्ट उद्घोषणा की है। उनको माने बिना न तो आत्मा का अविनाशित्व सिद्ध होता है और न ही संसारी जीवों के साथ कर्म का अनादित्व। भारतीय मनीषियों ने तो हजारों वर्ष पूर्व अपनी अन्तर्दष्टि से इस तथ्य को जान लिया था और आगमों, वेदों, धर्मग्रन्थों, पुराणों, उपनिषदों, स्मृतियों आदि में इसका स्पष्टरूप से प्रतिपादन भी कर दिया था। - वैदिकधर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ गीता में स्थान-स्थान पर पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्ररूपण किया गया है। अर्जुन ने कर्मयोगी श्री कृष्ण से पूछा"देव । योगभ्रष्ट व्यक्ति की क्या स्थिति होती है ?" इसके उत्तर में श्रीकृष्ण कहते है-"वह योगभ्रष्ट साधक पवित्र और साधन-सम्पन्न मनुष्य के घर जन्म लेगा, अथवा बुद्धिमान योगियों के कुल में पैदा होगा।"
१. अखण्डज्योति, सितम्बर १९७९ में प्रकाशित लेख से सार-संक्षेप, पृ. १८ २. "शुचीनां श्रीमतांगेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।।
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्॥" -गीता अ. ६, श्लोक ४१-४२
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