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________________ कर्म-अस्तित्व के मूलाधार : पूर्वजन्म और पुनर्जन्म-१ ४९ कर्म-अस्तित्व के मूलाधारः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म-१ कर्म का सम्बन्ध प्राणी के अतीत और अनागत से भी कर्मविज्ञान भारतीय दर्शनों का नवनीत है। जैनदर्शन का तो वह प्राण है। उसको माने बिना प्राणियों के अस्तित्व और व्यक्तित्व की, उनके स्वभाव और विभाव की, उनकी प्रकृति और विकृति की, उनके सुदूर अतीत से लेकर अब तक की अच्छी-बुरी उत्कृष्ट-निकृष्ट एवं उत्थान-पतन की सम्यक् व्याख्या हो नहीं सकती। प्रत्येक भारतीय आस्तिक दर्शन का जैनदर्शन द्वारा प्रतिपादित कर्म के स्वरूप के विषय में मतभेद होगा, परन्तु कर्म के अस्तित्व के विषय में मतभेद नहीं है। सभी आस्तिक दर्शन और धर्म एकमत से यह स्वीकार करते हैं कि कर्म मानव-जीवन के ही नहीं, समस्त सांसारिक प्राणि जगत् के जीवन के साथ श्वासोच्छवास की तरह जुड़ा हुआ है। कर्मविज्ञान के रहस्य का ज्ञाता इस तथ्य को भलीभांति स्वीकार करता है कि प्राणी जो कुछ भी मानसिक, वाचिक, कायिक एवं बौद्धिक क्रिया करता है, उसका मूल आधार पूर्व-कृतकर्म हैं, फिर वे पूर्वकृत कर्म इस जन्म के हों, पूर्वजन्म के हों या सैकड़ों-हजारों जन्म पहले के हों। इस प्रकार कर्म-सिद्धान्त का यह भी रहस्य है कि वर्तमान में मनुष्य जो कुछ अच्छी-बुरी प्रवृत्ति करता है, उसका परिणाम भविष्य में उसे उसी रूप में मिलेगा ही, चाहे वह इसी जन्म में मिले, अगले जन्म में मिले या कई जन्मों बाद मिले। इस दृष्टि से 'कर्म' प्राणिजगत् के साथ अतीत, अनागत और वर्तमान तीनों कालों में अनुस्यूत है। जब तक वह समस्त कर्मों से सर्वथा मुक्त नहीं हो जाता, तब तक कर्म उसकी आत्मा के साथ संलग्न रहते हैं। १. 'सव्वे सयकम्म कप्पिया ।' -सूत्रकृतांग १/२/६/ २. 'ज जारिस पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए ।' -सूत्रकृतांग १/५/२/२३ ३. (क) कतारमेव अणुजाइ कम्मं । -उत्तराध्ययन सूत्र १३/२३ - (ख) परलोगकडा कम्मा इहलोए वेइज्जति, इहलोगकडा कम्मा (वि) इहलोए वेइज्जति ।" . - भगवती सूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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