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________________ ४८ - कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) करने के प्रपंच में डालना, सर्व कर्ममुक्त, कृतकृत्य, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त ईश्वर को कर्मों के एवं जन्म-मरणादिरूप संसार के चक्कर में डालना है। कोई व्यक्ति बुरे कर्म करे तो ईश्वर या कोई भी शक्ति क्या उसे सुखी कर सकती है ? इसी प्रकार कोई अच्छे कर्म करे तो क्या वह शक्ति (ईश्वर या परब्रह्म) उसका कुछ भी बुरा कर सकती है ? कदापि नहीं। ईश्वर जब जीव के अपने शुभाशुभ प्राकृत कर्मों के अनुसार फलभोग कराता है, ईश्वर भी कर्म के समक्ष स्वतंत्र नहीं है वह भी प्राणियों के कर्मों से बंधा है। वह अपनी इच्छा से फल नहीं दे पाता। उसे कर्मों का फल प्राणियों के कृतकर्मानुसार ही देना होता है अतः शुभाशुभ कर्मों की प्रेरणा और कर्मफल प्रदान करने हेतु ईश्वर, महेश्वर या किसी परब्रह्म को मानना युक्तिसंगत नहीं है। तर्क की कसौटी पर कसे जाने पर भी संसार का सर्जक ईश्वर आदि कोई भी सिद्ध नहीं होता। ईश्वर को संसार का स्रष्टा मानने पर अनेकों विवादास्पद प्रश्न खड़े होते हैं, जिनका कोई भी युक्तिसंगत समाधान नहीं मिलता। तर्क से न तो कोई संसार सर्जक-ईश्वर सिद्ध होता है, न ही असंख्य प्रकार का संसार-वैचित्र्य किसी एक ईश्वर द्वारा रचित होना सम्भव है। इसलिए जैनदर्शन का यह अकाट्य सिद्धान्त है कि प्रत्येक जीव (आत्मा) अपने-अपने कर्मों के द्वारा व्यक्तिगत संसार (जन्म-मरण-सुखदुःखादिरूप) का कर्ता-स्रष्टा एवं भोक्ता है। इस प्राकृतिक सृष्टि का अधिष्ठाता भी वह ईश्वर को नहीं मानता, क्योंकि यह सृष्टि अनादिकाल से चली आ रही है, और अनन्तकाल तक चलती रहेगी, इसलिए यह न तो कभी नये सिरे से उत्पन्न हुई है, और न कभी पूर्णरूप से विनष्ट। इसमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के सिद्धान्तानुसार स्वतः परिवर्तन होता रहता है। इसलिए सृष्टि स्वतः परिणमनशील होने से किसी ईश्वर नामक अधिष्ठाता की अपेक्षा नहीं रखती। ___ अतः जैनदर्शन द्वारा प्रतिपादित यही सिद्धान्त सत्य है कि जीव ही अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के कारण अपने-अपने संसार का कर्ता-भोक्ता है, और कर्मक्षय एवं कर्मनिरोध के द्वारा स्वयं ही वह कर्मों से मुक्त होता है। उसकी संसारावस्था का मूल कारण कर्म ही है। अतएव जहाँ संसार है, वहाँ कर्म अवश्यम्भावी है।' १. (क) “कम्मकत्तो संसारो, तण्णासे तस्स जुज्जते नासो ॥"- गणधरवाद गा. १९८० (ख) जाति-मृत्यु-जरा-दुःखं, सततं समभिद्रुतः । संसारे पच्यमानश्च दोषैरात्मकृतैर्नरः ।। जन्तुस्तु कर्मभिस्तैस्तैः, स्वकृतैः प्रेत्य दुःखितः । तःखप्रतिघातार्थमपुण्या योनिमाप्नुते ॥ -महाभारत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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