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________________ ६०८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) . .. की लहरों की तरह परस्पर अनुस्यूत है। संसारी आत्मा के साथ कर्म विविध रूपों में दूध और पानी की तरह घुला-मिला है, तप्तलोहपिण्ड के साथ अग्नि की तरह एकीभूत-सा है। इसलिए सामान्य व्यक्ति राजहंस की तरह आत्मा और कर्म की परस्पर ओतप्रोत शक्तियों का विश्लेषण और पृथक्करण नहीं कर पाता। वर्तमान भौतिक वैज्ञानिक जिस प्रकार ऑक्सीजन और हाइड्रोजन इन दोनों का पृथक्करण कर लेते हैं, इसी प्रकार अध्यात्मविज्ञानी अथवा कर्मविज्ञानमर्मज्ञ आत्मा के प्रदेशों और कर्म के परमाणुओं का पृथक्करण, विश्लेषण और विवेक कर सकते हैं। कर्म का सर्वांगीण और परिष्कृत रूप समझना आवश्यक इसी दृष्टि से कर्म के सर्वांगीण और परिष्कृत स्वरूप को हम इस प्रकरण में प्रतिपादित करना चाहते हैं, ताकि वह लक्षण कर्म के पूर्वोक्त समस्त रूपों, अर्थों और व्याख्याओं को अपने में समाविष्ट कर सके। ___आशय यह है कि कर्म का वह परिष्कृत हम यहाँ देना चाहते हैं, जिसमें पाठक को कर्म के विभिन्न अर्थों और रूपों का, द्रव्यकर्म और भावकर्म का, संस्काररूप और पुद्गलरूप कर्म का, कर्म के परतंत्रीकारक स्वरूप का, कर्म के महाशक्तिरूप का, कर्म के मूर्तरूप का; कर्म, विकर्म और अकर्म का, कर्म के शुभ-अशुभ-शुद्धरूप का, कर्म के सकाम-निष्कामरूप का, कर्म और नोकर्म के अन्तर का, कर्म के विविध प्रक्रियात्मक स्वरूप का, तथा कर्मों के घाती अघाती कुलों का सम्यक्तया परिज्ञान एवं प्रत्याख्यान हो सके । वह हृदयंगम कर सके कि कर्मों का परिवार कितने रूपों में, किस-किस प्रकार से संसार में फैला हुआ है और संसारी जीव कर्म के किनकिन रूपों से किस-किस प्रकार से घिरा है। ___इन समग्र रूपों में यहाँ बन्धक कर्मों और अबन्धक कर्मों में सिर्फ बन्धक कर्मों की दृष्टि से ही वह परिष्कृत लक्षण समझना चाहिए। उन्हें ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से यथायोग्य, यथाक्रम से उनका प्रत्याख्यान (संवर और निर्जरा के द्वारा) करने का प्रयत्न करना चाहिए, यह भी इस परिष्कृत लक्षण से प्रतिध्वनित समझना चाहिए। ज्ञ-परिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से कर्मों से मुक्त जीव परब्रह्म परमात्मा बन सकता है। इसका अभिप्राय यह है कि जीव का कर्म के साथ अनादिकाल से सम्बन्ध होने पर भी वह यदि कर्मों और अपने आत्मस्वरूप का ज्ञपरिज्ञा से पूर्णतया परिज्ञान करे और यथायोग्य क्रम से उन-उन कर्मों का निरोध करने तथा क्षय करने का पुरुषार्थ करे तो वह प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उन-उन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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