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________________ १४ कर्म का सर्वांगीण और परिष्कृत स्वरूप क्या कर्मरूपी महासमुद्र की थाह लेना अतीव कठिन है ? अगाध जल से परिपूर्ण महासमुद्र की थाह लेना अत्यन्त कठिनतम कार्य है। सामान्य व्यक्ति से कहा जाए तो वह समुद्र की विशालता और अगाधता का माप नहीं कर सकता, न ही वह शब्दों से भी उसका आकलन कर सकेगा। परन्तु आजकल के कतिपय भौतिक विज्ञान के धुरन्धर विद्वान् समुद्र का भी स्थूलदृष्टि से माप करने में सक्षम हो गए हैं, यन्त्रों की सहायता से। इसी प्रकार विभिन्न कोटि के, विभिन्न प्रकार के और विविध हेतु और उद्देश्य से किये जाने वाले कर्मरूपी विराट् महासमुद्र की थाह लेना भी अतीव कठिन कार्य है। कर्म - महासमुद्र की विराट्ता, विशालता और गहनता का माप लेना भी सामान्य व्यक्ति के बलबूते से बाहर की वस्तु है, वह शब्दों से भी कर्म के विराट् स्वरूप का आकलन और ग्रहण नहीं कर पाता। परन्तु जो कर्मविज्ञान के विशेषज्ञ, मर्मज्ञ एव पारंगत हैं, अथवा जो कर्म के विराट् स्वरूप का आकलन एवं हृदयंगम करने के लिए अहर्निश मन्थुन-मनन करते हैं, तत्त्वजिज्ञासु हैं, आध्यात्मिक साधक हैं, उनके लिये ग्रन्थों और शास्त्रों की सहायता से, भगवद्वाणी और उसके पुरस्कर्ताओं द्वारा की हुई व्याख्याओं में कर्मरूपी विराट् महासमुद्र के सर्वांगीण और परिष्कृत स्वरूप का, विविध उद्देश्यों से कृत कर्मों के विविध रूपों का तथा • विभिन्न प्रकारों का आकलन, ग्रहण और धारण करना कठिन भी नहीं है। आत्मा और कर्म का पृथक्करण करना असम्भव नहीं है पिछले प्रकरणों में इसी उद्देश्य से कर्म के विभिन्न अर्थों, व्याख्याओं, रूपों तथा उसकी शक्ति, गति प्रगति, प्रक्रिया आदि से समन्वित विराट् स्वरूप की झाकी दी गई है। इन सब रूपों और स्वरूपों में कर्मशब्द समुद्र १. कर्मग्रन्थों, कम्मपयडी, गोम्मटसार (कर्मकाण्ड), महाबंधो, कषायपाहुड, बंधविहाणे' आदि ग्रन्थों के रचयिता । Jain Education International ६०७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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