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________________ जहाँ कर्म, वहाँ संसार ४१ व्यापार चौपट हो गया है। कहीं विधवा की आँखों में आँसू हैं, तो कहीं अनाथ बालकों की सिसकियाँ हैं । भर्तृहरि के शब्दों में देखिये संसार का स्वरूप - "कहीं खुशी के मारे वीणा बज रही है, तो कहीं इष्ट-वियोग या अनिष्ट-संयोग के कारण हाहाकारपूर्ण रुदन हो रहा है। कहीं विद्वानों की गोष्ठियाँ विविध विषयों पर विवाद कर रही हैं, तो कहीं मदिरा पीकर उन्मत्त बने हुए लोग कलह कर रहे हैं। कहीं रमणीय रमणी यौवन में मत्त हो रही है तो कहीं बुढ़ापे को जर्जर काया की ठठरी लिये कोई घूम रही है। न जाने, इस संसार में क्या अमृतमय है और क्या विषमय हैं ? संसार दुःखमय क्यों ? ท ‘अध्यात्मसार' में भी संसार को दुःखमय बताते हुए कहा गया है" इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है। पहले तो इस संसार में प्रेम (राग) का प्रारम्भ करने में ही दुःख है। उसके पश्चात् उस प्रेम को अखण्ड रूप से टिकाने में दुःख है । फिर प्रेमपात्र के नष्ट हो जाने पर नाना दुःख हैं । जिन्हें कठोर हृदय व्यक्ति कुम्भकार के आँवे में डाले हुए घड़े के समान चारों ओर से तप्त होकर सहन करता है । अन्त में, वह दुष्कर्मों के विपाक के कारण जन्मान्तर में भी नरकादि दुर्गतियों में दुःख पाता है। अतः संसाररूपी आँवे में तप्त प्राणी को जरा भी सुख नहीं है । " २ सचमुच संसार अधिकतर विषम है। इसलिए अधिकांश लोगों के लिये वह विषमय है, दुःखमय है, क्योंकि सारा संसार केवल कार्मिक अणुओं से बना हुआ है। कार्मिक अणुओं द्वारा निर्मितं - रचित इस जन्ममरणादिरूप संसार की आकर्षक और मोहक रचना में यह प्राणी (चेतन) भूल जाता है। १ "क्वचिद् वीणावादः क्वचिदपि च हाहेति रुदितम् । क्वचिद् विद्वद्गोष्ठी, क्वचिदपि च सुरामत्तकलहः ॥ · क्वचिद्रम्या रामा, क्वचिदपि जरा-जर्जरतनुः । न जाने संसारे, किममृतमयः किं विषमयः ? २ (क) “पुरा प्रेमारम्भे तदनु तदविच्छेद घटने । तदुच्छेदे दुःखान्यथ कठिनचेता विषहते ॥ विपाकादापाकाहित-कलशवत् तापबहुलात् । . जनो यस्मिन्नस्मिन् क्वचिदपि सुखं हन्त ! न भवे ॥ (ख) "क्लेशवासित ते संसार, क्लेशरहित ते भवोपार ।" Jain Education International - भर्तृहरि : वैराग्यशतक - अध्यात्मसार, भवस्वरूप चिन्तो १८ - उपाध्याय यशोविजय जी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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