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________________ कर्म - विज्ञान : कर्म का अस्तित्व ( १ ) जन्म-ग्रहण से शरीर प्राप्त होता है। शरीर से इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं। इन्द्रियों से विविध मनोज्ञ - अमनोज्ञ विषयों का ग्रहण होता है। विषयों के ग्रहण से राग और द्वेष रूप परिणाम होते हैं। जो जीव संसार चक्र में पड़ा है, उसकी (बद्ध कर्मों के कारण) ऐसी अवस्था होती है। कर्मों का यह प्रवाह अभव्य जीवों की अपेक्षा से अनादि - अनन्त है और भव्य जीवों की अपेक्षा से अनादि-सान्त है।”” ४० संसार की दुःखरूपता का मूल कारण : कर्म भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में संसार का ' स्वरूप बताते हुए कहा था- 'जन्म दुःखरूप है, बुढ़ापा दुःखंरूप है, रोग दुःखरूप है, मृत्यु दुःखरूप है, अहो ! यह जन्म-मरणादिरूप संसार निश्चय ही दुःखरूप है, जिसमें प्राणी क्लेश (दुःख) पाते हैं।” संसार की यह दुःखरूपता, करुणता और विचित्रता आकस्मिक नहीं है, वह है प्राणियों के अपने- अपने कर्मों के कारण। इसे अज्ञानी लोग समझ नहीं पाते । दुःख के क्षण संसार में अधिक हैं, सुख के क्षण कम । जो भी सुख के क्षण आते हैं, वे आते हैं-वैषयिक सुख के क्षण; जो प्राणियों को लुभावने, आकर्षक और मोहक लगते हैं; वे आते हैं जीवों को मोहादि कर्मों के जाल में फंसाने के लिए। सुख के क्षणिक आस्वाद में फंसने पर व्यक्ति बाद में पछताता है, रोता है, अपने आपको न टटोल कर, वह निमित्तों को कोसता है। संसार का दुःखमय रूप इस दुःखमय तथा कर्मजालमय संसार में चारों ओर दृष्टिपात करने से क्या दिखाई देता है ? किसी को पत्नी गैर - वफादार मिलती है, तो किसी को पुत्र उड़ाऊ मिलता है। किसी को प्रपंची मित्र मिलते हैं, तो किसी को स्वजन धोखेबाज मिलते हैं। किसी का शरीर रोगाक्रान्त है तो किसी का १ जो खलु संसारत्यो जीवो, तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं, कम्मादो होदि गदीसु गदी ॥ १२८॥ गदिमधिगदस्स देहो, देहादो इन्दियाणि जायते । हिंदु विसयहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२९ ॥ जायदि जीवस्सेवं भावो, संसारचक्कवालम्मि । इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणो साणिधणो वा ॥ १३० ॥ २ (क) जम्म दुक्खं, जरा दुक्ख रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्य किस्संति जंतुओ ॥ - उत्तराध्ययन अ. १९ गा. १६ (ख) तुलना कीजिएए- जन्म मृत्यु - जरा-व्याधि- वेदनाभिरुपद्रुतम् । संसारमिममुत्पन्नमसारं त्यजतः सुखम् ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - पंचास्तिकाय www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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