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कर्म के कालकृत त्रिविध रूप ५९७
__ ऐसे शाश्वतवादी, व्यक्ति संचित कर्म को आँखों से ओझल कर देते हैं और जो पुण्यकर्मपरायण होते हैं, वे शुभकार्यों से बिलकुल उदासीन एवं विमुख हो जाते हैं, तथैव जो पापकर्म-परायण होते हैं, वे अशुभकार्योंदुष्कृत्यों को बेधड़क करते चले जाते हैं। किन्तु भविष्य में जब वे शुभाशुभ कर्म प्रारब्ध के रूप में उदय में आकर फल देने को तत्पर होते हैं, तब उनके पश्चात्ताप, दुःख, घबड़ाहट, भय और आंतक की कोई सीमा नहीं रहती।
इसीलिए जैनकर्मवैज्ञानिकों ने कर्म के त्रैकालिक रूप को जाननेमानने की प्रत्येक जिज्ञासु और मुमुक्षु को चेतावनी दी है। उत्तराध्ययन सूत्र में इसका सुन्दर ढंग से निरूपण किया गया है। वर्तमान में पापी सुखी, धर्मी दुःखी : क्यों और कैसे ?
सच तो यह है कि जो मनुष्य वर्तमान में पापकर्म करता हुआ भी सुख भोगता मालूम होता है, तो वह सुख उसके वर्तमानकृत पापकर्मों का फल नहीं है, परन्तु उसके द्वारा पहले किये हुए कर्म, जो संचितरूप में जमा पड़े थे, वे ही पककर प्रारब्धरूप में उसे सुखरूप फल प्रदान करते हैं। और वर्तमान में किये जा रहे पापकर्म जहाँ तक संचित रहेंगे, प्रारब्धरूप में फल देने हेतु तत्पर नहीं होंगे, वहाँ तक उनके फल पाने में विलम्ब होगा। परन्तु जब उसके पूर्वकृत पुण्य कर्मों से निर्मित प्रारब्ध समाप्त हो जाएगा कि तुरंत ही उसके वर्तमानकृत पापकर्मों का पका हुआ दुःखरूप फल प्रारब्ध के रूप में सामने आकर उसे भुगवाएगा। जहाँ तक पूर्वकृत पुण्य प्रबल हैं, वहाँ तक प्रायः वर्तमानकृत पापकर्म उस पर हमला नहीं करते। एक गुजराती कवि ने कहा है
__ "पुण्य पूर्वेनु खाता, हमणा सूझे छे तोफान।
पण ए खर्ची खूटे के आगल, वसमु छे मैदान॥
जीवड़ा। मान मान रे मान; हजीए केम न आवे शान?" - इसके विपरीत जो व्यक्ति वर्तमान न्याय, नीति और धर्म का आचरण करता है, वह कदाचित् दुःखी दिखाई दे, परन्तु उसका वर्तमान दुःख उसके द्वारा पूर्वकृत पापकर्म के कारण है। जो संचित रूप में जमा थे, वे ही पककर अब प्रारब्ध रूप में सामने उपस्थित हैं। उन्हीं के कारण वह वर्तमान में दुःखी है। वर्तमान में न्याय-नीति और धर्माचरण के रूप में कृत शुभकर्म कालान्तर में पकेंगे, तब वे सुख के रूप में प्रारब्ध रूप में अवश्यमेव फलित १. स पुव्वमेवं न लभेज्ज पच्छा; एसोवमा सासइवाइयाणं।
विसीयइ सिढिले आउयमि, कालोवणीए सरीरस्स भेए। -उत्तराध्ययन ४/९
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