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५९६. कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) भी चले थे। परन्तु दोनों ही वक्त मैंने होशियार वकील नियुक्त किये थे और पुलिस विभाग में भी पर्याप्त धनराशि लुटाई थी। इस कारण दोनों केसों में मैं बिलकुल निर्दोष छूट गया। परन्तु इस केस में मैं बिलकुल निर्दोष होते हुए भी मारा जा रहा हूँ।"
सेशन जज को उसकी बात सुनते ही ईश्वरीय कर्मतत्त्व के प्राकृतिक कानून पर प्रतीति हो गई कि वह अटल है। उसमें कहीं गफलत नहीं है। पहली दो हत्याओं के समय इस हत्या-अपराधी का.पुण्य प्रबल होगा, इस कारण इसके उन दो क्रियमाण कर्मों को फल देने में देर लगी; वे दोनों पाप कर्म' संचित के रूप में जमा रहे। अब जबकि इसको पुण्य समाप्त हो गया, तब पिछले क्रियमाण हत्यारूप दो कर्मों के फलस्वरूप वे संचित कर्म पके
और फल देने हेतु तत्पर हुए। अर्थात्-वे संचित कर्म पककर प्रारब्ध के रूप में उपस्थित हुए। इस केस में निर्दोष होने पर भी प्रारब्ध ने उसे चक्कर में ले लिया और फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया। केवल प्रारब्ध को या केवल क्रियमाण को देखकर ही झट निर्णय न करो ।
इसलिए संचित रूप में जमा क्रियमाण कर्म मौका आते ही पककर प्रारब्ध होकर सामने आ ही धमकते हैं और फल देकर ही शान्त होते हैं।
कर्म के इस त्रैकालिक रूप को नहीं जानकर जो व्यक्ति केवल क्रियमाण को ही जानता है अथवा केवल प्रारब्ध को देखकर ही उसके समस्त जीवन या व्यक्तित्व का निर्णय कर लेता है, ऐसा व्यक्ति कर्मविज्ञान के सर्वांगीण रूप को भलीभाँति हृदयंगम नहीं कर पाता। जो व्यक्ति कर्म के केवल वर्तमान प्रारब्ध रूप को ही देखता है, वह त्याग, तप, न्याय, नीति और धर्म के अनुसार चलने वाले को दुःखित-पीड़ित तथा अन्याय, अनीति, . अधर्म और पाप के पथ पर चलने वाले को सुखी, सम्पन्न और धनिक देखता है, तो कर्म के अटल नियम-'यादृकुकरण तादृग्भरण 'जैसी करनी वैसी भरनी' के विषय में उसकी श्रद्धा डगमगा जाती है।
इसी प्रकार जो व्यक्ति केवल प्रारम्भकालिक या भूतकालिक क्रियमाण कर्म को ही देखकर यह सोच लेता है कि इस शुभकर्म का फल तो अभी मिला नहीं है, न मालूम कब मिलेगा ? अथवा मैंने जो हिंसा आदि पापकर्म किया है, उसका फल अभी तो मिला नहीं है, भविष्य में भी शायद ही मिले। १. कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) से पृ. १० २. तेणे जहा संधिमुहे गहीए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी।
एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्ख अत्यि। -उत्तराध्ययन ४/३
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