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५९२ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) .
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बचने के लिए मनुष्य चाहे जितना पैर पछाड़े, चाहे जितनी उठा-पटक करले, फल भुगवाए बिना वह कर्म शान्त नहीं होगा। ...
कर्म मनुष्य के पीछे-पीछे परछाई की तरह चलता, रहता है। फल भुगवाकर ही छोड़ता है। कदाचित् मनुष्य अधिक बुद्धिशाली हो तो चतुर वकील रखकर इस दुनियाँ की कोर्ट से छूट जाए, यानी दण्डरूप फल से बच जाए। किन्तु सर्वोपरि (सुप्रीम) कोर्ट = कर्म प्रकृति के कोर्ट से तो कतई छुट नहीं सकता। वहाँ किसी भी वकील की दलील या किसी बड़े आदमी की सिफारिश नहीं चलती। कर्म के कोर्ट में किसी न्यायाधीश को रिश्वत देना, किसी झूठे गवाह को खड़ा करना, इत्यादि तिकड़मबाजी नहीं चलती। कदाचित् किसी व्यक्ति का पुण्य प्रबल हो अथवा क्रियमाण कर्म को पकने-फलप्रदान करने में अभी देर हो, इस कारण उस दौरान अपराधयुक्त क्रियमाण पापकर्म करने पर भी जगत् की दृष्टि में अपराधी सिद्ध न हो, फिर भी संचित हुए वे (पूर्वकृत क्रियमाण) कर्म मौका आने पर पककर प्रारब्ध के रूप में उपस्थित होकर सामने आ धमकते हैं और फल भुगवा कर ही शान्त होते हैं।' प्रारब्ध कर्म को हँसते-हँसते भोग लो
। अतः कर्म करने से पूर्व हजार बार सोच लेना चाहिए। परन्तु कर्म हो जाने के पश्चात् उनके फल भोग से बचने या छूटने के लिए व्यर्थ की दौड़-धूप या उठा-पटक नहीं करनी चाहिए। जब वे क्रियमाण कर्म पककर प्रारब्ध के रूप में सामने आएँ, तब सीना तान कर उन्हें सहर्ष अपना लेना
और भोग लेना चाहिए। अन्यथा, हँसते-हँसते किये (बांधे) हुए वे पापकर्म (फल) रोते-रोते भी भोगने ही पड़ेंगें। राजा परीक्षित ने अशुभ प्रारब्ध को स्वयमेव भोग कर मुक्ति पाई
__ यद्यपि राजा परीक्षित महाज्ञानी, विद्वान् और संस्कारी था। फिर भी उससे एक महान् पाप (कम) हो गया। क्रोधावेश में आकर उसने एक मरा हुआ सांप एक निर्दोष निरपराध ऋषि के गले में लिपटा दिया था। राजा घर आया। उसका क्रोध शान्त हुआ। उसे अपना दुष्कृत्य ध्यान में आ गया। और उसकी अन्तरात्मा पश्चात्तापपूर्वक पुकार उठी-अहो। मैंने अनार्य के समान भंयकर अधम पापकर्म कर डाला। गुप्त तेजस्वी निरपराध ब्राह्मण के प्रति मैंने कितना अन्याय कर डाला।" २ १. (क) कर्मग्रन्य भा. ५ प्रस्तावना से पृ. १९ __(ख) कर्मनो सिद्धान्त (हीराभाई ठक्कर) से पृ. ११ २. (क) वही, पृ. ११ (ख) अहो मया नीचमनार्यवत् कृतम्। निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि॥
-महाभारत (व्यास जी)
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