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________________ कर्म के कालकृत त्रिविध रूप ५९१ पककर फल देने हेतु प्रारब्ध के रूप में जीव के समक्ष आकर खड़े रहते हैं और अनन्तकाल तक जीव को इन कर्मों से मुक्त नहीं होने देते। इसीलिए संसार-सागर को दुस्तर कहा गया है।' कालकृत कर्मों का यह चक्र अनन्तकाल तक चलता है कर्मों का यह रोटेशन (Rotation) अनन्त-अनन्त जन्मों तक चलता रहता है। क्रियमाण से संचित और संचित से प्रारब्ध के रूप में परिणत होकर विभिन्न रूपों में अनन्त काल तक प्रवाह रूप से कर्मों की अविच्छिन्नता चलती रहती है। लोकमान्य तिलक ने क्रियमाण कर्म के भेद को ठीक नहीं माना। वे लिखते हैं कि क्रियमाण का अर्थ है-जो कर्म अभी हो रहा है, अथवा जो कर्म अभी किया जा रहा है, परन्तु वर्तमान समय में हम जो करते हैं, वह प्रारब्ध कर्म का ही परिणाम है। वेदान्तसूत्र में कर्म के प्रारब्धकार्य और अनारब्ध कार्य ये दो भेद ही किये गए हैं।२ तीनों कालकृत कर्मों का फल किसी न किसी रूप में भोगना पड़ता है ... क्रियमाण अर्थात्-बध्यमान कर्म का भी फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। हाँ, जैनकर्मविज्ञान की दृष्टि से इतना जरूर है कि जब तक सत्ता में पड़ा हुआ (संचित) कर्म उदयोन्मुख (फल देने हेतु तैयार) नहीं होता, तब तक उन्हें (निकाचित रूप में न बंधे हों तो) अशुभ से शुभ में, या शुभ से अशुभ में भी परिणत किया जा सकता है। तथैव फल देने से पहले ही उदीरणा करके फल भोगकर उन्हें क्षीण किया जा सकता है। . फिर भी क्रियमाण से संचित में चले जाने पर भी, अथवा क्रियमाण से सीधा प्रारब्ध में चला गया है, तब भी फल तो अवश्यमेव भोगना पड़ता है। भले ही त्याग, तप, संयम आदि से अशुभफल शुभफल के रूप में परिणत. हो जाए, अथवा पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त आदि कारणों से बृहत्तम के बदले अल्पतम अशुभं फल भोगना पड़े। परन्तु यह बात प्रायः निश्चित है कि जो कर्म किया है, अर्थात् राग-द्वेषादियुक्त होकर कर्म बांधा है, तो समझ लो उसका फल भोगने से छटक नहीं सकते। अशुभ कर्मफल से १. (क) कर्मनो सिद्धान्त से पृ.८ (ख) पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्। . इह संसारे खलु दुस्तारे कृपया परि पाहि मुरारे।। -शंकराचार्य २. (क) गीतारहस्य (लो. तिलक) से पृ. २७२ (ख) वेदान्तसूत्र ४/१/१५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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