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________________ कर्म के कालकृत त्रिविध रूप ५८९ पाँच सौ रुपये वसूल कर ही लेता है। फिर वह किसी भी तरह उसे छोड़ता नहीं। यही बात क्रियमाण कर्म के सम्बन्ध में समझिए। जिस क्रियमाण कर्म का फल तत्काल नहीं मिलता; वह कर्म संचित रूप में जमा पड़ा रहता है। और भविष्य में जब भी ठीक मौका मिलता है, उस समय वह पककर उदय में आता है, यानी फल देने हेतु तत्पर होता है, और फल देकर ही शान्त होता है।' इस प्रकार जो क्रियमाण कर्म तुरंत फल देकर शान्त नहीं होते, वे संचित कर्म कहलाते हैं। प्रारब्ध कर्म : स्वरूप और विश्लेषण जिन संचित कर्मों का फल मिलना प्रारम्भ हो गया है, वे प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। अर्थात्-जो संचितकर्म पकंकर फल देने हेतु तैयार हो जाते हैं, वे प्रारब्ध कर्म कहे जाते हैं। इस प्रकार पूर्वबद्ध कर्म के दो भाग हो जाते हैं-जो भाग अपना फल देना प्रारम्भ कर देता है, वह प्रारब्ध (आरब्ध) कर्म कहलाता है और शेष भाग जिसका फल भोग प्रारम्भ नहीं हुआ है, अनारब्ध (संचित) कहलाता है। अर्थात्-संचित कर्म के जिस भाग का फलभोग शुरू हो जाता है, उसे ही प्रारब्ध कर्म कहते हैं। संचित कर्मों के असंख्य करोड़ हिमालय-पर्वत जितने ढेर प्रत्येक जीव के पीछे जमा पड़े होते हैं, उनमें से जो संचित कर्म पककर फल देने को उद्यत हो जाते हैं, वे प्रारब्ध कर्म की कोटि में परिगणित होते हैं। उन प्रारब्ध कर्मों को भोगने के लिये तदनुरूप शरीर जीव को प्राप्त होता है और उस शरीर के विद्यमान काल के दौरान प्रारब्धकर्म भोगने के पश्चात् ही वह शरीर छूटता है। यद्यपि उक्त प्रारब्धकर्म के फलभोग के अनुरूप शरीर के साथ-साथ तदनुकूल आरोग्य, पत्नी, पुत्रादि तथा सुख-दुःख आदि उसी जीवितकाल के दौरान जीव को आ मिलते हैं और उन प्रारब्ध कर्मों को पूरे-पूरे भोगे बिना उस शरीर से छुटकारा नहीं होता। प्रारब्ध कर्म पूर्णतया भोगे बिना नहीं छूटते किसी-किसी को बुढ़ापे में लकवा मार जाता है और वह दश-दश वर्ष तक रुग्णशय्या पर पड़े-पड़े सड़ता रहता है। भगवान् से वह प्रार्थना करता. है-"प्रभो। कब इस बीमारी से मेरा छुटकारा होगा ? कब मेरे प्राण १. कर्मनो सिद्धान्त में उद्धृत आख्यान से, पृ. ६-७ २. (क) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन) पृ. १९८ (ख) कर्मनो सिद्धान्त (श्री हीराभाई ठक्कर) से पृ. ७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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