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________________ ५८८ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) जब धृतराष्ट्र राजा के प्राकृत कर्म उदय में आए धृतराष्ट्र राजा के एक सौ पुत्र एक साथ ही मर गये, तब उन्होंने कर्मयोगी भ. श्रीकृष्ण से पूछा कि "मैंने अपने जीवन में कोई ऐसा भयंकर पाप नहीं किया जिसके फलस्वरूप मेरे सौ पुत्र एक साथ मर जाएँ।" इस पर कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने अपनी योगमाया से धृतराष्ट्र को अपने पिछले जन्म देखने की दिव्यदृष्टि दी। उसके द्वारा उसने देखा कि करीब ५० जन्म पहले वह एक पारधी था । उसने एक वृक्ष पर बैठे हुए पक्षियों को पकड़ने के लिए जलती हुई जाल उस वृक्ष पर फैंकी । उससे बचने के लिए कई पक्षी उड़ गए, किन्तु उस जलती हुई जाल की गर्मी से वे अंधे हो गए और बाकी के सौ छोटे पक्षी जल कर खाक हो गए। यह क्रियमाण कर्म पचास जन्मों तक बिना फल दिये संचित रूप में पड़ा रहा। और जब धृतराष्ट्र राजा के अन्य सभी पुण्यों के फलस्वरूप उसे इस जन्म में सौ पुत्र प्राप्त हुए; तब वही संचित कर्म फल देने के लिए तत्पर हुआ। इसी कारण प्रारब्ध फल के रूप में उसे इस जन्म में अंधत्व प्राप्त हुआ और उसके एक सौ पुत्र मारे गए। आशय यह है कि पचास जन्म के पश्चात् भी धृतराष्ट्र के द्वारा किये हुए क्रियमाण कर्म ने उसका पिण्ड नहीं छोड़ा। उसे सौ पुत्र प्राप्त होने. जितना पुण्य उपार्जित हो, तब तक वह (क्रियमाण) कर्म प्रतीक्षा करके बैठा रहा। अर्थात् - संचित कर्म के रूप में जमा पड़ा रहा। और जब पूरा अवसर आया, तभी तत्काल जरा भी विलम्ब किये बिना फल देकर शान्त हो गया । " क्रियमाण कर्म तत्काल फल क्यों नहीं देते ? जिस प्रकार किसी व्यक्ति ने किसी मनुष्य को ५००=00 रु. कर्ज दिये । समय पूरा हो जाने पर वह उससे ५००=०० रु. मांगने जाए, उस `समय वह रुपये अदा करने से साफ इन्कार कर दे, तो साहूकार उक्त कर्जदार पर दीवानी कोर्ट में दावा करता है। कोर्ट उसके खिलाफ ५००=00 रु. वसूल करने का हुक्मनामा निकालता है। सरकारी बेलीफ वारंट लेकर उक्त कर्जदार के पास पहुँचता है । किन्तु कर्जदार के पास उस समय ऋण चुकाने के लिए पैसा ही न हो तो बेलीफ हुक्मनामा का वारण्ट लेकर उससे ऋण-वसूली कैसे कर सकता है ? कुछ वर्षों के पश्चात् उक्त कर्जदार कोई अन्य व्यवसाय करके लगभग एक हजार रुपया कमा लेता है तो तुरंत बेलीफ हुक्मनामा का वारंट लेकर उसके पास पहुँच जाता है और १. कर्मनो सिद्धान्त में उद्धृत आख्यान से पृ. ६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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