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जहाँ कर्म, वहाँ संसार ३७
'गोम्मटसार' में भी कहा गया है- "जिस प्रकार कावड़िया के द्वारा बोझा ढोया जाता है, उसी प्रकार शरीररूपी कावड़िया के द्वारा संसारी (अशुद्ध) आत्मा जन्म-मरणादिरूप संसार के अनेक कष्टों को सहती हुई कर्मरूपी भार को विभिन्न गतियों और योनियों में ढोती हुई भ्रमण करती है। जब आत्मा के समस्त कर्मों का समूल विनाश हो जाता है, तब उस मुक्त आत्मा का स्वाभाविक शुद्ध रूप प्रकट हो जाता है।"" जीव के ये दोनों रूप अवस्थाकृत होते हैं। एक ही जीव के ये दोनों अवस्थाकृत भेद हो सकते हैं। जीव (आत्मा) की संसारी अवस्था को बद्ध-अवस्था भी कहते हैं। जीव (आत्मा) की जो दूसरी शुद्ध अवस्था है, उसमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, वाणी, जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, पीड़ा, हानि-लाभ, सांसारिक दुःख-सुख तथा शुभाशुभ अष्टविध कर्म आदि नहीं होते। उस समय वह आत्मा निरंजन, निराकार, अशरीरी, अकर्म, संसार के आवागमन से रहित, अमूर्त, पूर्ण शुद्ध होती है। उसमें परमात्मा के अनन्तज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त आत्मिक सुख (आनन्द) एवं अनन्त बल पूर्णतया प्रकट हो जाते हैं। इसलिए जैनदर्शन परम-आत्मा को पूर्ण शुद्ध मानता है; जबकि संसारी आत्मा को कर्म सम्बद्ध होने से कथंचित् शुद्ध और कथंचित् अशुद्ध मानता है। वह कहता है- व्यावहारिक दृष्टि से कर्म संयुक्त आत्मा (जीव) अशुद्ध है, जबकि निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा (जीवद्रव्य) शुद्ध है।
जैनदर्शन शैवदर्शन के इस सिद्धान्त से सहमत नहीं है कि आत्मा सदैव सर्वथा शुद्ध रहता है। आत्मा को एकान्तरूप से सर्वथा शुद्ध मानने पर प्रश्न होगा कि शुद्ध आत्मा शरीरादि क्यों धारण करता है? शुभाशुभ कर्म करने का क्या प्रयोजन है ? सांसारिक सुख - दुःखादि में विषमता क्यों है ? उपर्युक्त सभी शंकाओं से यह स्पष्ट है कि आत्मा सर्वथा शुद्ध नहीं है। अगर आत्मा को एकान्तरूप से सर्वथा शुद्ध माना जाएगा तो व्रत, प्रत्याख्यान, तप, त्याग, संवर, संयम आदि का आचरण करना व्यर्थ हो जाएगा। अतः संसारी आत्मा एकान्तरूप से सर्वथा शुद्ध नहीं है। इसी प्रकार यदि आत्मा को सर्वथा (एकान्ततः) कर्मसंयुक्त ही माना जाएगा तो वह कदापि मुक्त नहीं हो
१ (क) मग्गण- गुणट्ठाणेहिं य चउदसहिं तह असुद्धणया ।
विष्णेया संसारी सव्वे सुद्धा सुद्धणया ॥
- द्रव्यसंग्रह १३ (ख) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) (आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती) गा. २०२,२०३ (ग) समावन्नाण संसारे नाणागोत्तासु जाइसु ।
कम्मा नाणाविहा कट्टु, पुढो विसंभिया हया ॥
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- उत्तराध्ययन सूत्र अ. ३ गा. २
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