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सकाम और निष्काम कर्म : एक विश्लेषण
कर्म शब्द के अर्थों में भ्रान्ति
अध्यात्म की तलहटी से चोटी तक पहुँचने में कर्म साधक की गति-प्रगति में साधक भी बनता है, बाधक भी । वह कभी प्रच्छन्नरूप से और कभी प्रकटरूप से जीव के साथ-साथ चलता है। कभी वह मनुष्य को हँसाता है, कभी रुलाता है, कभी नचाता है, और कभी उदास और कभी मूक बना देता है। विज्ञ मनुष्य ही उसकी गति प्रगति, सामर्थ्य और प्राबल्य, बाधकता और साधकता को तथा उस पर विजय पाने एवं उसका निरोध और क्षय करने के उपायों को जानता मानता है। अनभिज्ञ और अज्ञ इसकी गति - प्रगति आदि को तथा इस पर विजय पाने एवं निरोध- क्षय आदि करने के उपायों को न तो जानता मानता है और न ही प्रायः जानना मानना चाहता है। वह प्रत्येक काम को ही कर्म समझता है और प्रायः भ्रान्तिवश यह भी मान लेता है कि काम या कार्य ही कर्म का पर्यायवाची शब्द है ।
कर्म शब्द के अर्थ भी पूर्वाग्रहगृहीत हो चुके
यद्यपि कर्मशब्द अपने में ज्ञात अज्ञात, प्रसिद्ध - अप्रसिद्ध सभी अर्थों को समेटे हुए है; तथापि साधारण मानव कभी कर्म शब्द पर गहराई से सोचता समझता भी नहीं। वह प्रायः यही समझता - सोचता है कि काम, काम और बस काम ही जीवन पर्यन्त करना है। उस 'कर्म' को जिसमें शुभ - अशुभ, अच्छे-बुरे, उत्कृष्ट - निकृष्ट, द्रव्यरूप - भावरूप तथा सकामनिष्काम, कुशल- अंकुशल, बन्धक - अबन्धक आदि सभी प्रकार के कर्म छिपे हुए हैं, और समय आने पर उस कर्म की जड़ में से अंकुर की तरह नाना अर्थ फूटते प्रतीत भी होते हैं, परन्तु अनभिज्ञ और अज्ञ मानव कर्मशब्द के संवेदनशील रहस्य की तथा विभिन्न अर्थों की पर्तों को विवेक विचार के चिमटे से कभी उठाने और हटाने का प्रयत्न नहीं करते।
कभी-कभी परम्परा और पूर्वाग्रह के वश होकर मानव 'कर्म' शब्द को हठाग्रहपूर्वक विचित्र अर्थ में ग्रहण कर लेता है और कर्म के नाम पर
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