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________________ कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप ५४५ जो अपने सुख की चाह को लेकर दुःख देता है, वह मरकर सुख प्राप्त नहीं करता। इसके विपरीत जो सुखाभिलाषी जीवों को अपने सुख की लिप्सा से कभी दुःख नहीं देता; वह मरकर सुख प्राप्त करता है ।" तथागत बुद्ध 'सुत्तनिपात' में स्वयं कहते हैं- "जैसा मैं हूँ वैसे ही ये अन्य जीव भी हैं; जैसे ये अन्य जीव हैं, वैसा ही मैं हूँ इस प्रकार सभी को आत्मतुल्य समझकर किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। "" यही कर्म के एकान्त शुभत्व का मूलाधार है। दृष्टि से कर्म के एकान्त शुभत्व का आधार : आत्मतुल्यदृष्टि जैनदर्शन के अनुसार भी कर्म के एकान्त शुभत्व का मूलाधार आत्मौपम्य दृष्टि है । अनुयोगद्वार सूत्र में बताया गया है - " जो त्रस और स्थावर सभी प्राणियों पर समत्वयुक्त (सम) रहता है, उसी की सच्ची सामायिक (समत्वयोग की) साधना होती है, ऐसा वीतराग केवली भगवान् का कथन है।” “संसार के (समस्त) षट्कायिक प्राणियों को आत्मतुल्य मानो । प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य व्यवहार करो" । २ इत्यादि आगमवचन कर्म के एकान्त शुभत्व के सूचक हैं | जब तक संसारी : तब तक शुभ-अशुभ दोनों कर्मों का उदय परन्तु एक बात निश्चित है कि जब तक जीव संसारी है, तब तक एक मात्र शुभ कर्म का ही बन्ध हो, या एकान्त शुभ कर्म का ही उदय हो ऐसा सम्भव नहीं है। हाँ, यह बात अवश्य है कि जिनके चार घातिकर्म क्षीण हो चुके हैं, उनके शेष अघातिकर्मों का शुभ आस्रव कभी-कभी हो सकता है। परन्तु बंध तो नाममात्र का केवल दो समय का सुखस्पर्शिक होता है। प्रथम समय में बंध होता है, द्वितीय समय में वेदन और तृतीय समय में निर्जीर्ण (क्षीण) होकर चला जाता है । निकाचितरूप से पूर्वबद्ध कर्म भोगने शेष रहे हों तो वे कर्म उदय में आ सकते हैं और शुभाशुभरूप फल भुगवा सकते हैं। ' "इसलिए यह कदापि नहीं हो सकता कि शुभाशुभ कर्म प्रवृत्तियों में एक मात्र शुभ कर्म प्रवृत्ति ही उदय में रहे, दूसरी उसके साथ न आए। १. (क) धम्मपद १२९, १३१, १३३ (ख) सुत्तनिपात ३७ / २७ २. (क) जो समो सव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि भासियं ॥ (ख) अप्पसमं मनिज्ज छप्पिकाए । (ग) आयतुले पयासु ३. उत्तराध्ययन सूत्र अ.. २९/७१ का अन्तिम वचन । Jain Education International For Personal & Private Use Only - अनुयोगद्वार सू. १२९ www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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