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५४४ कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३)
अतः मीमांसादर्शन के अनुसार 'कर्म का कारण कोई उद्देश्य-संतोष या सुख-प्राप्ति की इच्छा होती है। कर्म का उद्देश्य केवल जीवित प्राणियों के होता है। अकर्म (शुद्ध कम) में भी उद्देश्य होता है। अतः कर्म, उद्देश्य एवं परिणाम में उसी प्रकार का सम्बन्ध है, जिस प्रकार का सम्बन्ध विभिन्न अंगों का शरीर के साथ होता है।' इस दृष्टि से शुभाशुभ कर्म का आधार भी पूर्वोक्त सिद्ध होता है।' वैदिक धर्मग्रन्थों में शुभत्व का आधार : आत्मवत् दृष्टि ___मनुस्मृति, गीता और महाभारत में कर्म के शुभत्व का प्रमाण व्यवहारदृष्टि से समस्त प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि ही है। यह आधार व्यक्तिसापेक्ष भी है, समाजसापेक्ष भी। भगवद्गीता में कहा गया है-जो व्यक्ति सुख और दुःख में समस्त प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखकर व्यवहार करता है, वही (गीता की भाषा में) परम (कम) योगी और (जैन भाषा में) परम शुभकर्मा है। महाभारत में भी कहा गया है-"जो जैसा अपने लिये चाहता है, वैसा ही व्यवहार दूसरे के प्रति भी करे।" इसी प्रकार आगे कहा गया है-“त्याग, दान, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय सभी में दूसरे को अपनी आत्मा के तुल्य मानकर व्यवहार करो।" “जो दूसरे प्राणियों के प्रति आत्मवत् व्यवहार करता है, वही स्वर्ग के दिव्य सुखों को प्राप्त करता है।" “जो व्यवहार स्वयं को प्रिय लगता है, वही व्यवहार दूसरों के प्रति किया जाए, यही धर्म (शुभ) और अधर्म (अशुभ) की पहचान है।" २ बौद्धधर्म में कर्म के शुभत्व का आधार : आत्मौपम्यदृष्टि ,
बौद्धधर्म-विचारणा में भी कर्म के शुभत्व का आधार आत्मवत् सर्वभूतेषु को ही सर्वत्र माना गया है। धम्मपद में बुद्ध ने स्पष्ट कहा है"सभी प्राणी दण्ड (मरणान्त कष्ट) से डरते हैं। मृत्यु से सभी लोग भयाविष्ट हो जाते हैं। सबको जीवन प्रिय है। अतः सभी प्राणियों को आत्मतुल्य समझकर न मारे और न मारने की प्रेरणा करे। सुखाभिलाषी प्राणियों को
१. (क) जैमिनीसूत्र अ. १ पाद ३ सू. १९-२५ (ख) जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'मीमांसादर्शन में कर्म का
स्वरूप' लेख से पृ. २00 २. (क) आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुनः । सुखं वा यदि वा दुःखं, स योगी परमो मतः।।
-गीता ६/३२ (ख) महाभारत, शान्तिपर्व २५८/२१ (ग) वही, अनुशासनपर्व ११३/६-१० (घ) वही, ११३/६-१०
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