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५४० कर्म-विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) .
इसीलिए 'भगवद्गीता' के इस कथन के साथ भी जैनदर्शन सहमत नहीं है, जिसमें कहा गया है-'जिसके मन में अहंकर्तृत्व के भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में लिप्त नहीं होती। वह इन सब लोगों को मारकर भी वस्तुतः न किसी को मारता है और न ही कोई मारा जाता है। अर्थात्-वह उक्त हिंसाकर्म से बन्धन में नहीं पड़ता। इसी प्रकार 'धम्मपद' में प्रतिपादित यह बुद्ध-वचन भी जैनकर्मविज्ञान से सम्मत नहीं है"नैष्कर्म्य स्थिति को प्राप्त ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को तथा प्रजा सहित राष्ट्र को मार कर भी निष्पाप होकर जीता है।"२ . यह शुद्ध कोटि का कर्म कदापि नहीं
जो इतनी उच्च कोटि पर पहुँचा हुआ है या उस पथ का पथिक है, उसे इतना तो अवश्य जानना चाहिए कि प्राणिवध, फिर वह चाहे किसी रूप में हो, जिसमें पंचेन्द्रिय प्राणी-मनुष्य का वध तो सर्वथा निन्दनीय, पापमय एवं घृणित अशुभ आचरण है। वह कैसे शुभ-अशुभ से पर शुद्ध कोटि का कर्म हो सकता है ? । कृति अशुभ है तो मागलिक भी अमांगलिक-अशुभ
इसी प्रकार जैनगृहस्थों के समक्ष जब लौकिक रीति-रिवाजों, प्रथाओं या विधि-विधानों के पालन का प्रश्न आया तो उनके समक्ष जैनाचार्यों ने स्पष्ट निर्देश दिया
"सर्व एव हि जैनाना, प्रमाण लौकिकी विधिः। यत्र सम्यक्त्व हानि न, न स्याद् व्रतदूषणम्॥
"जैनों के लिए सभी लौकिक विधियाँ (रीति-रिवाज) प्रमाण हैंमान्य हैं, बशर्ते कि उनके पालन करने में सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) की क्षति न हो, और न ही अहिंसा आदि व्रतों में कोई दोष लगे।"३ ___'गोभिल गृह्यसूत्र' में विधान है कि प्राचीन काल में विवाह-मण्डप में वर और वधू को जब विवाह-प्रसंग पर बिठाया जाता था, तो मांगलिक दृष्टि से उन्हें बैल को मार उसका रक्तलिप्त ताजा लाल चमड़ा ओढ़ाने का रिवाज था। किन्तु जैनों के समक्ष जब यह बात आई तो उन्होंने इस हिंसाजनित पापकर्मयुक्त रिवाज को बदलकर वर-वधू को लाल सालू का कपड़ा पहनाने का रिवाज चलाया। उस युग में नरमुण्ड को मांगलिक १. यस्य नाऽहंकृतो भावो, बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्त्वाऽपि स इमाँल्लोकान्, नायं हन्ति, न निबध्यते। -गीता १८/१७ २. धम्मपद गा. २४९ ३. नीतिवाक्यामृत (आ. सोमदेव)
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