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________________ कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप ५३९ अनुमोदन करने से। परन्तु यदि हृदय पापमुक्त हो तो इन तीनों के करने पर भी निर्वाण अवश्य मिलता है।" इस वाद (मान्यता) को मानने वाले, किन्तु कर्मबन्धन का सम्यग्ज्ञान नहीं बताने वाले कतिपय व्यक्ति इस जन्ममरणादिरूप संसार में फंसते और भटकते रहते हैं। क्योंकि यह वाद अज्ञानमूलक है। जो व्यक्ति मन से पाप को पाप समझता हुआ भी दोष करता है, उसे निर्दोष कैसे माना जा सकता है ? वह तो संयम (वासनानिग्रह) में सरासर शिथिल है। परन्तु भोगासक्त लोग उनकी उक्त चिकनीचुपड़ी बातें मानकर पाप में पड़े रहते हैं।" तांत्रिको तथा सुखवादियों की वृत्ति और प्रवृत्ति दोनों ही अशुभ तांत्रिकों ने काम, क्रोध आदि आन्तरिक पशुओं की बलि देने का विधान किया, परन्तु उनके आशय को न समझ कर निर्दोष पशुओं की बलि दी जाने लगी। बाद के वाममार्गी तांत्रिकों ने तो खुल्लमखुल्ला मद्य, मीन, मैथुन, मांस और मुद्रा, इन पंच मकारों को सुखप्राप्तिकारक कर्म बताकर बिल्कुल गुमराह कर दिया। नन्दीसूत्र' की मलयगिरिवृत्ति में 'घटचटकमोक्षवाद की चर्चा की है। वहाँ बताया गया है कि प्राचीन काल में एक ऐसा मत था जो दुःखी मनुष्यों को सुख पहुँचाने और परलोक में मोक्ष या स्वर्ग मिल जाने की बात बताकर सुख-प्राप्ति के इच्छुक को दम घोटकर मार डालते थे। जिस प्रकार एक घड़े में चिड़िया को बंद करके उस घड़े का मुख चारों ओर से बिल्कुल बंद कर दिया जाता है तो शीघ्र ही वह चिडिया घड़े में ही दम घुटकर मर जाती है। इसी प्रकार जो दुःखी आदमी शीघ्र सुख पाना चाहता था, उसकी सारी संपत्ति लेकर उसे दम घोटकर शीघ्र परलोक पहुँचा दिया जाता था। क्या यह सुख पहुँचाने की मनोवृत्ति शुभ कही जा सकती है, जबकि मारने की क्रिया अशुभ है।२ . बाह्यरूप से वृत्ति शुभ, कृति अशुभ ___ क्योंकि सभी जीव जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता। परन्तु स्वर्ग का.सब्जबाग दिखाकर जैसे पोप लोग धनिकों से धन ऐंठकर स्वर्ग की हुंडी लिख देते थे, वैसे ही घटचटकमोक्षवादी भी सुख-प्राप्ति एवं स्वर्ग में निवास या मोक्ष-प्राप्ति का झांसा देकर दुखी व्यक्ति से धन ले लेते और उसे मार डालते थे। १. सूत्रकृतांगसूत्र श्रु. १, अ. १, गा. २४ से २९ २. (क) तंत्रशास्त्र : एक अध्ययन .. (ख) देखें-नन्दीसूत्र मलयवृत्ति में घटचटकमोक्ष प्रकरण। ३. (क) सव्वे जीवा वि इच्छति, जीविउ न मरिज्जि। -दशवैकालिक ६ (ख) सव्वेसिं जीवियं पियं। -आचारांग १/४/२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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